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________________ - जैन महाभारत सुगन्धित द्रव्य हाथ मे लिए उपवन के मार्ग से राजप्रासादों मे जाती हुई दिखाई दी। उसे देखते ही कुमार वसुदेव ने उसे अपने पास बुलाकर पूछा कि यह तुम्हारे हाथ मे क्या है ? दासी-'गन्धानुलेपन । किसके लिए लेजा रही हो? दासी-महराज समुद्रविजय व महारानी के लिये । कुमार-क्यों, इसमे से थोड़ा हमें नहीं दे सकती ? ___नहीं, महाराज की आज्ञा के बिना उनके निमित्त की वस्तु में से किसी को देना चोरी होगा, चाहे आप हों या मैं चौर्य कर्म सभी के लिये वर्जित है। दासी ने कहा। कुमार-दूसरे की वस्तु का अपहरण चोरी है। किन्तु महाराज समुद्रविजय कोई पराये नहीं, वे मेरे ही बड़े भाई है। इसलिए उनकी प्रत्येक वस्तु पर मेरा स्वभाव सिद्ध अधिकार है, गन्धानुलेपन जैसी तुच्छ वस्तु की तो बात ही क्या । वे बहुमूल्य से बहुमूल्य वस्तु देने से भी कभी मुझसे सकोच न करेंगे। इसलिए यदि तू मुझे यह गन्धद्रव्य नहीं देगी तो मैं वरबस छीन लूगा। ___ यह सुन कुब्जा ने मुस्कराते हुए कहा कि, अपनी इन्हीं करतूतों के । कारण ही तो यहां बन्दियो की भॉति पड़े हो । फिर भी आपके स्वभाव मे परिवर्तन न हुआ। . ___ इस पर आश्चर्य चकित हुए वसुदेव ने पूछा कि-मुझे बन्दी कौन कहता है ? बता तेरे इस कथन का क्या रहस्य है ? तब कुब्जा ने नागरिको की प्रार्थना पर उनके बन्दी किये जाने का सारा वृतान्त सविस्तार कह सुनाया। क्योंकि कहा भी है 'रहस्यं खलु नारीणा हृदये न चिर स्थिरम् ।' इस सारी घटना को सुनकर वसुदेव ने कुब्जा को बिना कुछ उत्तर दिये विदा कर दिया। वसुदेव का गृह त्याग और चिता प्रवेश - इधर वसुदेव को जब अपने बड़े भाई महाराज समुद्रविजय और नागरिक जनों के इस छा व्यवहार का पता लगा तो वह मन ही मन बड़े क्षुब्ध हुए। वे सोचने लगे कि 'मेरे रूप गुणों पर नर-नारी मुग्ध हो मेरे प्रति आकृष्ट होते है तो इसमें मेरा क्या अपराध है, और जव
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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