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(७३) गग-बग्ग संलग्ग अगंजिय, जय प चरक जिणेस-पास धनराय पुरष्ट्रि व्य. ॥ १७ ॥ मह मणु तरलु प माशु-नेय वायावि विसंतुलु, नेय तगुरऽवि अरिणय-सहावु अलस विदलंग्रलु तुद माहप्पु पमाणु. देव कारुण्ण पवितन, इय म मा अवहारि-पास पालिहि विलवं तन.॥ १७॥ किं किं कपिन नेयकलुणु किं किं वन जंपिन, किं वन चिटिग्न किट्ठू-देव दीणय, मावलंबिन, कासु न किय निष्फल ललि अम्हेहि उहत्निहि, तहवि