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________________ ज्यों सुमेरुतट निर्मल काति,झरना झर नीर उमगाति ।३०॥ ऊचे रहें सूरि-दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपै अगोप ।। तीन लोक की प्रभुता कहै, मोती झालरसो छवि लहैं ॥३१॥ दु दुभि शब्द गहर गम्भीर, चहु विशि होय तुम्हारे घोर । त्रिभुवनजन शिवसगम कर, मानों जय जय रव उच्चर ।३२॥ मन्द पवन गधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहुप सुवृष्ट । देव करें विकसित दल सार,मानो द्विजपति पवतार ।३३। तुमतन भामन्डल जिनचन्द, सन दुतिवत करत है मन्द । कोटि शख रवितेज छिपाय,शशि निर्मल निशि कर अछाय ।३४ स्वर्ग मोक्ष मारग सफेत, परम धरम उपदेशन हेत । दिव्य वचन तम खिरै अगाध,सबभाषा-गभित हितसाध ।३५॥ वोहा-विकसित सुवरन कमल दुति. नख-दुति मिलि चमकाहि तुमपद पदवी जहँ धरो,तह सुर कमल रचाहिं ।।३६।। जैसी महिमा तुम विष, और धरै नहिं कोय । सूरज ले जो ज्योति है, नहि तारागरण होय ॥२७॥ पट्पद मद अलिप्त कपोल-मूल, अलि कुल झकारे, तिन सुन शब्द प्रचड, क्रोष उद्धत अति धारै। कालवरन विकराल, कालवत् सन्मुख प्राव, ऐरावत सो प्रबल, सकल जन भय उपजावै ।। देखि गयन्द न भय करै, तुम पद महिला लीन । विपतिरहित सम्पति सहित, वरते भक्त नदीन ॥३॥
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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