SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 40 ) प्रति मदमत्त - गयन्द, कुम्भथल नयन विदार, मोती रक्त समेत डारि भूतत सिगारे । aist दाढ विशाल, बदन मे रसना लोलं, भीम - भयानक रूप देखि, जन घरहर टोलं । ऐसे मृगपति पगतले, जो नर ग्रायो होय | शरण गये तुम चररण की, बाधा करें न सोय ||३६|| प्रलय पवन कर उठी, प्राग जो तास पटतर, वर्षे फुलिंग शिखा-उतङ्ग पर जलं निरन्तर । जगत समस्त निगल्ल, भस्म करदेगी मानों, तडतडाट दव- श्रनल, जोर बहुँदिशा उठानो । सो इक दिन में उपशमे, नाम नीर तुम लेत | होय सरोवर परिणमे विकसित कमल समेत ॥ ४० ॥ कोकिलकण्ठ समान श्यामतन फोष जलता । रक्तनयन फुंकार, मार विष-करण उगलता ॥ फरण को ऊँचो करें, वेग ही सनमुख पाया । तव जन होय निशङ्क, देख फरगपति को प्राया | जो चांप निज पगतलं, व्यापं विष न लगार । नागदमन तुम नाम की, है जिनके प्राधार ॥४१॥ जिस रण माहि भयानक, रव कर रहे तुरङ्गम, धन सम गज गरजाहि, मत्त मानों गिरि-नङ्गम । प्रति कोलाहल माहि, बात जहँ नाहि सुनीजे, राजन को परचऊ, देख वल घोरज छोजे ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy