SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ ) ॥ पद्धरि छन्द ।। चच घाति चूर प्ररिहन्त नाम, पायो च्युत दोप न सुगुरगधाम। तिनमै पटचाल जु मुरय याय, तिनमे दसगुग्ग जनमत उपाय ।। जय केवल ज्ञान उद्योत ठान, उपजे दश गुण को कहि बखान । चौदह गुण देवनि कारत होय, तिनको महिमा वरणे सु कोय ।। वर ट प्रातिहारज सयुक्त, चामर छत्रादिक नाम युक्त । फेवल दांन वरज्ञान पाय, सुख वीर्य अनन्त चतुष्ट पाय ॥ ये कहिवे के गुण हैं छियार, गुरण अनन्त लसै तिनको न पार। तातै पूर्जी करि अर्घ लेय, मोहि तारि २ अरिहन्त देव ।। वसुविविहरि वसुभू बसे सिद्ध,सुगुरण प्रादिक लरि प्रत्यतरिद्ध। पूजू मन वच तन अर्घ ल्याय, मोकू तुम थानक मे बसाय ।। वर द्वादश तप दश धम भेव, षट् पावस पचाचार येव । जय गुप्ति सुगुन छत्तीसपाय, सब सघ ज्येष्ठ गुरु सूरिथाय ।। बहु-जीवन वृष को मग बताय, शिवसपति दोनो मु मुनिराय । पूजू मन वच तन अर्घ लेय, मोकू अजरामर पद करेय ।। वर ग्यारह अरु चवद पूर्व, पढि उपाध्याय पद लह्यौ पूर्व । तिनके पद पूजत प्रर्घ लाय, सबभ्रम नाशन जिन ज्ञान पाया। गुरण मूल अष्टविंशति प्रनप, धरि है सब साधु सु शिव सरूप । व्रत पचसमिति परणइन्द्र रोध, षट् प्रावस भूमि सुशयन सोध।। तजि स्नान वसन कर लौच ठानि, लघु भोजन ठाढ करत पान दतौन त्याग ये अष्टबीस, धरि साधै शिव तिन नमत शीष । फरि प्रष्ट द्रव्य को अर्घ लेय, सब साधुन को करिहो जु सेव ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy