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________________ [ १२५ पूजू सदा मन वचन तन ते, हरो मो भव बाघ ही ।। ॐ ह्री श्रोअरिहन्त सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय सर्वसाधुभ्य जन्म जरामृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा। मलय माहि मिलाय केशर, घसो चन्दन बावना। भृङ्गार भरकरि चरण पूजत, भवाताप नसावना परिचदनं। अक्षत अखडित सुरभि श्वेत हि, लेत भर करि थाल ही। जे जजै भविजन भाव सेती, अक्षयपद पावै सही परि.अक्षत। स्वर्ण-रूप्यमई मनोहर, विविध पुष्प मिलाइये। भरि कनकथाल सुपूजिहैं, भवि समर-वान नशाइये ।अरि.पुष्पं बहु मिष्ट मोदक सुष्ट फैनी, आदि बहु पकवान ही। भरियाल प्रभुपद जज विधित,नश क्षुत दुखनाशही अरि नैवेद्यं मरिण स्वर्ण आदि उद्योत कारण, दीप बहु विधि लीजिये । तन मोह पटल विध्वंसने, जुग पाद पूजन कीजिये परि.दीपा कर्पूर अगर सुगन्ध चन्दन, कनक धूपायन भरें। भवि करहि पूजा भाव सेती, प्रष्ट कर्म सबै जरै ॥अरि.धूपं। बादाम श्रीफल लौंग खारिक, दाख पुंगी आदि ही। भरि थाल भविजन पूजि करते,मोक्ष फल पावै सहीअरि.।फलं। जल गन्ध अक्षत पुष्प चरु ले, दीप धूप फलो गही। करि अर्घ पूजे पंचपद को, लहैं शिव सुख वृन्द ही अरि.अध्य जयमाला दोसा-नमप्रथम अरिहन्त सिद्ध, माचारज उवझाय । साधु सकल विनती करू, मन वच तन सिरनाय ॥१॥
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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