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________________ - - - - - - ~ - - ~ - - [ १२७ मैं मन वच तनतै शीश नाय, नमिहो मो शिवमग को बताय। जल थल रन बन मग विकट माहि, ये पंच परमगुरुशरण थाहिं डायन प्रेतादि उपद्रव माहि, इन पंच परम धिन को सहाय । बहु जीव जपत नवकार येव, रिद्ध सिद्ध लहि संकट हरेव ।। मौ कथन पुरान पुरान माहि, हम ताकी महिमा का कहाहि । पत्ता-ये पंच अपराध, भव दुख बाधे, शिवसंपति सहजै वरई । मै मन वच गाऊ,शीश नवाऊं,मो अविचल थानहि धरई। ॐ ह्री पञ्चपरमेष्ठिजिनेभ्यः जयमाला पूर्णाध्य । सोरठा-विधन विनाशनहार, मंगलकारी लोक में । सो तुमको भी सार, पंच सकल मंगल कर ।। इत्याशीर्वाद । श्रीचद्रप्रभ जिनपूजा छप्पय-चारुचरन पाचरन चरन चितहरन चिहनचर । चदचंदतमचरित, चंदथल चहत चतुर नर ।। चतुक चंड चकचूरि, चारि चिदचक्र गुनाकर । चंचल चलित सुरेश, चूलनुत चक्र धनुरहर ।। चरचरहितू तारनतरन, सुनत चहकि चिरनंद शुचि । जिनचन्द चरन चरच्यो गहत, चितचकोर नचि रचि रुचि।१। दोहा—धनुष डेढ़सौ तुङ्ग तन, महासेन नृपनन्द । मातुलछमनाउर जये, थापो चन्दजिनंद ॥२॥ ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र । अत्रावतर अवतर । संवौषट् । ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठ ठ ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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