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________________ १२२ ] aaa a ... तबही लौकातिक देव पाय, वैराग्य वर्द्धनी थुति कराया ।। तत्क्षण शिविका लायो सुरेन्द्र, प्रारूढ भये तापर जिनेन्द्र । सो शिविका निज कन्धन उठाय, सुरनरखग मिल तपवन राय कचलौच वस्त्र भूपरण उतार, भये जती नगन मुद्रा सुधार । हरि केश लेय रतनन पिटार, सो क्षीर उदधि माही पधार ।। जय पारसनाथ अनाथ नाथ, सुर असुर नमत तुम चरण माथ। जुग नाग जरत फीनी सुरक्ष, यह बात सकल जगमे प्रत्यक्ष ।। तुम सुर धनु सम लखि जग असार, तपतपन भये तन ममतक्षार शठ कमठ कियो उपसर्ग प्राय, तुम मन सुमेरु नहिं डगमगाय ।। तुम शुक्लध्यान गहि खडग हाथ,परि चार घातिया कर सूघात। उपजायो केवलज्ञान भानु, आयो कुवेर हरि वच प्रमाण ॥ की समोसरण रचना विचित्र, तहा खिरत भई वारणी पवित्र। मुनि सुर नर ग्वग तिर्यञ्च प्राय,सुन निजनिज भाषा बोध पाय जय वर्द्धमान अन्तिम जिनेश, पायो न अन्त तुम गुण गणेश । तुम चार प्रघाती करम हान, लियो मोक्षस्वयसुख अचलथान।। तबही सुरपति बल अवधि जान, सब देवन युत बहु हर्षठान । सजि निज वाहन प्रायो सुतीर, जहँपरमौदारिक तुम शरीर ॥ निर्वाण महोत्सव कियो भूर, ले मलयागिर चन्दन कपूर । बहु द्रव्य सुगंधित सरस सार, तामे श्रीजिनवर वपु पधार ।। निज अगनिकुमारिन मुकुटनाय,तिद रतननिशुचि ज्वाला उठाय तिस सिर माही दीनो लगाय, सो भस्म सबन मस्तक चढाय ॥ अति हर्ष थकी रचि दीपमाल, शुभ रतनमई दशदिश उजाल ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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