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________________ छक्खडागम ७९ कोई बात जिसके ज्ञानसे वाहर न हो। भगवान महावीरकी इस सर्वज्ञताका उपहास करते हुए भी सातवी शताब्दीके पूर्वार्धमे हुए प्रसिद्ध बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति ने कहा था--'सर्वज सबको देखे या न देखे, किन्तु उसे इप्ट तत्त्वोको अवश्य जानना चाहिये । कीट-पतंगोकी सख्याका उसका ज्ञान हमारे लिए क्या उपयोगी है?' __ यह 'कीट-संख्याज्ञान' द्रव्यप्रमाणानुगम जैसे जैन ग्रन्थोमें वर्णित जीवोकी सख्याकी ओर ही सकेत करता है । अस्तु, ____ गुणस्थानोकी अपेक्षा जीवराशिका प्रमाण बतलाते हुए कहा है कि सर्वजीवराशि अनतानत है । उसका वहुभाग मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती है और शेप बाकीके तेरह गुणस्थानोमें और सिद्धोमें विभाजित है। मिथ्यादृष्टियोका प्रमाण अनन्तानन्त बतलाते हुए लिखा है कि अनन्तानन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालोके बीत जानेपर भी उनकी सख्याका कभी अन्त नहीं आता। चौदह गुणस्थानोकी जीवराशियोका कथन करनेके पश्चात् गति आदि चौदह मार्गणओमें और उनके भेद-प्रभेदोमें जीवराशिका प्रमाण बतलाया है। ____ इस भागके सूत्रोकी संख्या १९२ है, जिनमेंसे प्रारम्भके चौदह सूत्रोमें गुणस्थानोमें जीवराशिका प्रमाण बतलाया है और सूत्र १५ से मार्गणास्थानोमें प्रमाणका निर्देश है। जहाँ तक हम जानते है ससारकी जीवराशिकी सख्याका इस तरह निर्देश जैन आगमोके सिवाय अन्यन नही पाया जाता। पहले जीवट्ठाण नामक खण्डमें आठ अनुयोगद्वार है। उनमेसे दो अनुयोगद्वारोका विवेचन यहाँ करके स्थगित करते है क्योकि षट्खण्डागमकी टीका धवलाके प्रसगमें पट्खण्डागमके विपयका विस्तृत विवेचन करने में लाघव और सुगमता होगी। यहां केवल शेप खण्डोका सामान्य परिचय दिया जाता है। ३ क्षेत्रानुगम--मे' जीवोके निवास व विहारादि सम्बन्धी क्षेत्रका परिमाण बतलाया है। प्रथम सूत्र है--'खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य' । क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघसे और आदेशसे । दूसरे सूत्रमे उसी प्रश्नोत्तररूप शैलीमें कहा है--'ओघकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते है ? सर्वलोकमे रहते है।' तीसरे सूत्र में कहा है--'सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमे रहते है ? लोकके असख्यातवें भागमें रहते है।' १. पट्स० पु. 3 में क्षेत्र, स्पर्शन और कालानुम मुद्रित हैं।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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