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________________ ७० · जैनसाहित्यका इतिहास तीरारे गुणस्थानका नाम सम्यग्गिय्यादृष्टि है। जिगकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा या रुचि सच्ची जोर विपरीत दोनो प्रकारली होती है उरी राग्यग्गिय्यादृष्टि वाहते है । कहा है-जरो दही और गुड को मिला देने पर उन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता। उगी प्रकार गायवल गौर मिय्यात्ताप मिले हुए भाव वाले जीवको सम्यग्मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये । ४. 'असजदराम्माद ठी' ॥१२॥' जिसकी दृष्टि अर्थात् अद्धा राम्यक्राच्ची होती है उसे गम्यग्दृष्टि कहते है । और सयमरहित राम्यग्दृष्टिको अरांयतराम्यग्दृष्टि कहते हैं । वे राम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकारसे होते है-क्षायिकराम्यग्दृष्टि, वेदकसम्गग्दृष्टि और ओपगमिकासम्यग्दृष्टि । __ मिथ्यात्व, राम्यमिथ्यात्व, राम्यक्त्वमोहनीय, अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोग ये मोहनीयामकी सात प्रकृतियां जीवकी श्रद्धाको दूपित करती है। अत इन सातो वामप्रकृतियोका सर्वथा विनाग हो जाने पर जीनमें जो सम्यग्दर्शन गुण प्रकट होता है उसे क्षायिकगम्यग्दर्शन नहते है और उरा जीवको क्षायिक सम्यग्दृष्टि कहते है । उक्त सात प्रकृतियोके उपशम (दव जाने)से जिसके सम्यग्दर्शन प्रकट होता है उसे औपशमिकसम्यग्दृष्टि कहते । उक्त सात कर्मप्रकृतियोमेसे सम्यक्त्वमोहनीयवामका उदग ररते हुए जो सम्यग्दर्शन होता है उसके धारी जीवको वेदकमभ्यग्दृष्टि कहते है । इन तीनोमेसे क्षायिकराम्यग्दृष्टि जीव कभी भी मिथ्यात्वमे नही जाता, किन्तु औपशमिकसम्यग्दृष्टि उपशमसम्यक्त्वके छूट जाने पर मिथ्यात्वनामक पहले गुणस्थानवाला हो जाता है। या सासादनगुणस्थानवाला होकर फिर मिथ्यात्वगुणस्थानमे जाता है। कभी तीसरे गुणस्थानवाला भी हो जाता है। कहा हैजो न तो इन्द्रियोके विपरोसे विरक्त है और न बस और स्थावर जीवोकी हिंसासे विरत है, किन्तु जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहे हुए तत्वोपर श्रद्धा रखता है उसे असयतसम्यग्दृष्टि कहते है । मागेके सब गुणस्थान सम्यग्दृष्टिके ही होते है। ५. 'सजदासजदा ॥१३॥' जो सयत होते हुए भी असयत होते है उन्हे संयतासयत कहते है । कहा है- जो जिनेन्द्रदेवमे ही श्रद्धा रखते हुए सजीवोकी हिंसासे विरत और स्थावर जीवोकी हिंसासे अविरत होता है उसे विरताविरत या सयतासयत कहते है। १. पटख, पु १, पृ० १७१ । २. वही, पु०१, पृ० १७३ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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