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________________ 'छक्खंडागम • ६९ का अर्थ है जिनमें जीव भले प्रकार रहते है अथवा पाये जाते हैं उन्हें जीवसमास' कहते है । जैन सिद्धान्तमें गुणोके अनुसार संसारके सव जीवोका वर्गीकरण चौदह विभागोमे किया गया है । उन चौदह विभागोको ही गुणस्थान कहते है । ये गुणस्थान ससारके जीवोके क्रमिक विकासके सूचक स्थान है । इन पर अवरोह मोक्षकी ओर ओर अवतरण ससारकी ओर ले जाता है । उनके अस्तित्वके कथनके दो प्रकार है - सामान्य कथन और विरोप कथन । प्रथम सामान्य कथन किया है फिर विशेष कथन किया है । इन दोनो प्रकारके कथन के लिये जैन सिद्धान्तमें ओघ और आदेश शब्द रूढ है । सूत्रकारने चौदह सूत्रोके द्वारा चौदह गुणस्थानोंके नामोका निर्देश किया है | उनका स्वरूप जाने बिना प्रकृत सिद्धान्तग्रन्थके रहस्य को समझना शक्य नही है । अत सक्षेपमे उनका स्वरूप बतला देना अनुचित न होगा ? १. 'ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी ॥९॥ ओघसे मिथ्यादृष्टि जीव है । यहाँ मिथ्याशब्दका अर्थ असत्य है । और दृष्टिशब्दका अर्थ दर्शन अथवा श्रद्धान । जिन जीवोकी दृष्टि मिथ्या होती है उन्हे मिथ्यादृष्टि कहते है । दृष्टिके मिथ्या होनेका कारण मिथ्यात्वमोहनामक कर्मका उदय है । जिन जीवोके मिथ्यात्वका उदय होता है उनका श्रद्धान विपरीत होता है। ओर जैसे पित्तज्वरके रोगीको मीठा दूध भी कडुवा लगता है वैसे ही उन्हें यथार्थ धर्म भी अच्छा नही लगता । यह पहला गुणस्थान है । २. ' सासणसम्माइट्ठी 3 ॥ १०॥ ' दूसरे गुणस्थानका नाम सासादनसम्यग्दृष्टि है । सम्यग्दर्शनकी विराधनाको आसादन कहते है । जो आसादन सहित हो उसे सासादन कहते हैं । जो जीव सम्यग्दृष्टी होकर अपने सम्यग्दर्शनको विनष्ट कर लेता है और इस तरह सम्यक्त्वसे मिथ्यात्व की ओर अभिमुख होता है उसे सासादनसम्यग्दृष्टी कहते हैं । कहा है— 'सम्यग्दर्शनरूपी रत्नपर्वत के शिखरसे गिरकर जो जीव मिथ्यात्वरूपी भूमि ( पहला गुणस्थान ) के अभिमुख होता है, अतएव जिसका सम्यग्दर्शनरूपी रत्न तो नष्ट हो चुका है किन्तु जो मिथ्यात्वको प्राप्त नही हुआ है, पतनकी इस मध्य अवस्था वाले जीवको सासादनसम्यग्दृष्टि कहते हैं । ३ ' सम्मामिच्छाइट्ठी ॥११॥' १. ' जीवसमास इति किम् ? जीवा सम्यगासतेऽस्मिन्निति जीवसमास । क्वासते । गुणेपु । पट्ख, पु १, पृ० १६० । २ पट ख०, पु० १, पृ० १६१ । ३ वही, पृ० १६३ | ४. वही, पृ० १६६ |
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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