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________________ छक्ख डागम : ५७ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि संतकम्मपाहुडमें वन्धके पश्चात् सत्तारूपमें स्थित प्रकृतियोका ही कथन किया गया है, अत. महावधसे वह भिन्न है । अतएव 'सतकम्मपाहुड' किसका नाम है ? इस प्रश्नका समाधान सत्कर्मपजिकासे होता है । वीरसेनस्वामीने जो शेष अट्ठारह अनुयोगद्वारोको लेकर धवलाटीका रची है, उसके प्रारम्भिक चार अनुयोगोपर एक पजिका उपलब्ध हुई है, उसका नाम सत्कर्मपजिका है । उसमें धवलाके उक्त अशका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है 'संतकम्मपाहुड' क्या है ? महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चोवीस अनुयोगद्वारोमें दूसरा अधिकार वेदना नामक है । उसके सोलह अनुयोगद्वारोमेंसे चौथे, छठे और सातवें अनुयोगद्वारोका नाम द्रव्यविधान, कालविधान और भावविधान है,' तथा महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका पांचवां प्रकृतिनामा अधिकार है उसमें चार अनुयोगद्वार है । आठो कर्मो प्रकृतिसत्व, स्थितिसत्व, अनुभागसत्व और प्रदेशसत्वका कथन करके उत्तरप्रकृतियोके प्रकृतिसत्व, स्थितिसत्व, अनुभागसत्व और प्रदेशसत्वको सूचित करनेके कारण उन्हें सतकम्मपाहुड कहते हैं ।' सत्कर्मपंजिकाके इस कथन के अनुसार महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके जिन अनुयोगद्वारोंमें सत्तारूपसे स्थित कर्मका कथन है उन्हें सतकम्मपाहुड कहते है । वे अनुयोगद्वार है -- वेदना नामक अधिकारके चौथे, छठे और सातवें अनुयोगद्वार तथा महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका प्रकृतिनामक पाँचवाँ अधिकार । महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके स्पर्श, कर्म और प्रकृतिनामक तीन अनुयोगद्वारोको लेकर वर्गणानामक पांचवां खण्ड रचा गया है । उसके प्रकृतिनामक अनुयोगमें केवल आठो कर्मोकी प्रकृतियां मात्र बतलाई गई हैं। शेष कथन के लिए लिख दिया है कि वेदना की तरह जानना । पजिकाकारका अभिप्राय उसीसे जान पडता है । अत उनके कथनानुसार उक्त अनुयोगद्वारोको सतकम्मपाहुड कहा जाता था । अत संतकम्मपाहुड महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके अन्तर्गत ही जानना चाहिए । . १ ' सतकम्मपाहुड णाम त कध (द) म ? महाकम्मपय टिपाहुटस्स चउवीस आणिओगद्दारेसु विदियाहियारो वेदना णाम ? तस्स सोलसअणियोगद्दारेसु चउत्थ छट्ठम-सत्तमाणियोगद्दाराणि दव्वकालभावविहाणणामधेयाणि । पुणो तहा महाकम्मपय डिपाहुडस्स पचमो पयडीणामहियारो । तत्थ चत्तारि अणियोगद्दाराणि अट्ठकम्माण पयटिट्ट्ठिदिअणु भागप्पदेससत्ताणि परूविय सूचिदुत्तरपयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेससत्तादो एदाणि सत्त (सत) कम्मपाहुड णाम । मोहणीय पडुच्च कसायपाहुड पि होदि । - पट्ख, पु० १५, परि०, पृ० १८ । २, 'सेस वेदणाए भंगो।' -पट्ख०, पु० १४, पृ० ३९२ |
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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