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________________ ५६ · जैनसाहित्यका इतिहास इसी खण्ड में आगे एक जगह यह शका की गई है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतमे शेप चौदह अनुयोगोके द्वारा कथन किसलिये किया है ? इस तरह छै वार महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका उल्लेख हमें धवलाटीकामें मिला है । सतकम्मपाहुड और महाकम्मपय डिपाहुडके उक्त उल्लेखोमे कोई ऐसी बात लक्षित नही होती, जिससे हम दोनोको एक मान सकें । सत्कर्म और महाकर्मप्रकृति सज्ञाएँ भी एक अर्थकी द्योतक नही है | धवलाकारके कथनसे ही यह बात स्पष्ट हो जाती है और उसीसे यह भी प्रकट हो जाता है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृत और सत्कर्मप्राभृत एक नही है । महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौबीस अनुयोगद्वारोमेंसे केवल छ अनुयोगद्वारोके ऊपर ही भूतबलिस्वामीने षट्खण्डागमके सूत्रोकी रचना की थी । उन छे खण्डोमेंसे पाँच खण्डो पर धवलाटीका रचनेके पश्चात् वीरसेन स्वामीने शेप अट्ठारह अनुयोगद्वारोका भी कथन किया है। उन अनुयोगद्वारोमेंसे एक अनुयोगद्वारका नगम प्रक्रम है और एकका उपक्रम । यहाँ शका की गई है कि प्रक्रम और उपक्रममें क्या अन्तर है ? इसका समाधान करते हुए श्री वीरसेनस्वामीने लिखा है " - प्रक्रम - अनुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति और अनुभागमे आने वाले प्रदेशाग्रका कथन करता है और उपक्रम - अनुयोगद्वार बन्धके दूसरे समयसे लेकर सत्तारूपसे स्थित कर्मपुद्गलोके व्यापारका कथन करता है । अत दोनोमें अन्तर है । इसके पश्चात् वीरसेनस्वामीने बन्धन- उपक्रमके चार भेद किये है-प्रकृतिबन्धन- उपक्रम, स्थितिबन्धन - उपक्रम, अनुभागवन्धन - उपक्रम और प्रदेशवन्धन - उपक्रम | इन चारोका स्वरूप बतलाकर लिखा है कि 'इन चार उपक्रमोका कथन जैसे 'सतकम्मपाहुड' मे किया गया है वैसे ही करना चाहिए ।' इसपर यह शका की गई कि महाबन्धमें जैसा कथन किया गया है वैसा कथन इन चारोका यहाँ क्यो नही किया जाता, तो उसका समाधान करते हुए कहा गया है कि महाबधका व्यापार प्रथम समय सम्वन्धी वधमें ही है, अत यहाँ उसका कथन करना योग्य नही है । 'महाकम्मपयडिपाहुटे किमट्ठ तेहि अणिओगद्दारेहि तस्म परूवणा कदा |' पट्०, पु० १३, पृ० १०६ । २. 'पक्कम-उवक्कमाण को भेदो ? पयरिट्ठिदिअणुभागेसु दुक्क माणपदेसग्गपरूवण पक्कमो कुण्ड, उवक्कमो पुण वधविदियममयप्पडुडिसतसरूवेणदिकम्मपोग्गलाण वावार परूवेदि । ~ 'एत्थ एदेसिं' चदुष्णमुवक्कमाण जहा सतकम्मपयटिपाहुडे परूविद ता परूवेयव्व । जहा महावधे परूविंद तहा परूवणा एत्य किण्ण कीरदे ? ण, तस्स पढमसमयबधम्मि चैव वावारादो ।'पट्०, पु० १५, पृ० ४२-४३ |
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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