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________________ ५८ . जनसाहित्यका तिहारा गिन्तु जगधवलाम लिगा गि गति, वेदना मादि जीवीग अनुगांगदारी में प्रतिबद्ध राताम्गमहाधिकारी एग उदय नामक अधिकार है, जो प्रतियोके स्थिति, अनुभाग और प्रदेशांग उलष्ट, अनकन्ट, जगम भीर अजघन्ग उदया कथन करता है। उसमें माट प्रदेशोदगा रवामित्व गिद्ध मरनेके लिए 'राम्मुत्तुणत्ति' आदि गारह गुणश्रेणियोमा गायन गरी लिंगा है कि जो गुणश्रेणियां गगलेगो गाय भवान्तरमे गमान्त होती है उन्हें गहेंगे। इस प्रसगग जो वागग उनत किये गये। वे वागा गदाण्यागग उक्त सतर्म नामक अभिकारगे, जिगार पाजका है, वर्तगान है। अत. वीग्गनग्यागी द्वारा गहाकर्मप्रतिमागतो शेप अद्यारह अनुयोगद्वारीको लेकर जो धवला रची गयी है वही सतागमहाधिकार है, गह प्रमाणित होता है। किन्तु जयभवलामें गतकम्गगहालिाको अद्यागत अनुगोगदारोग प्रतिवर न बतलाकर चौबीग अनुगोगहारोग प्रतिवन्त बतलाया है। गो गाय जव हम गतागंपजिकाके गायनको मिलाते है और वाग्मेनम्नागी उग नाथनको सामने रखते हैं कि वन्धफे दुगरे रागयगे लेकर राताम्पगे स्थित कर्गपुद्गलोके व्यापार स्थनको उपक्रम कहते है, तो उगसे पस्तुस्थिति पर प्रकाश पाता है । चौवीम अनुगोगद्वारीमेसे जिन-जिनमें उक्त सत्तास्पमे स्थित कर्मपुद्गलोका कयन है वे गव रातकम्ममहाधिकार या सतगमगाउमै गभित गमो जाने चाहिये । और सम्पूर्ण चौवीसो गनुयोगद्वार महाकर्मप्रकृतिप्रामृत कहे जाते है । उगमें महावन्ध भी गर्मित है। किन्तु संतकम्मपाहुडमें गहावन्ध गभित नहीं है । अत सतकम्मपाहुड महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका नामान्तर नहीं है, बल्कि उसके अन्तर्गत ही है। जैसा कि पट्सण्ड नागमे स्पष्ट है। यह ग्रन्थराज छ सण्टोम विभक्त हैं। पहले सण्डका नाम जी चट्टाण (जीवस्थान ) है। दूसरे गण्टका नाम सुद्दावध (क्षुल्लक वन्ध ) है। तीगरे मण्डका नाम वधस्वामित्वविचय है। चौथे खण्डका नाम वेदना है, पांचवें सण्डका नाम वर्गणा है और छठे सण्डका नाम महावन्ध है। १ 'सतकाम्गमाहियारे कदिवेदणादिनउवीमअणिओगदारसु पटिबद्ध उदओ णाम अत्याहि. यारो 'जाओ गुणमेडीओ सकिलेसेण सह गवतर सकामेति तागो वत्तस्मामो। त जा-उवसमसम्मत्तगुणसेही संजदामजदगुणसेढी अधापवत्तसजदगुणमेदिन्ति पदाओ तिणि गुणमेदीगो अप्पसत्थगरणेण वि मदरस परभवे दीमति । सेमासु गुणमेढीसु मीणासु अप्पसत्थमरण भवे' :दि युत्त ।-ज०प० प्र०का० पृ० ३१९७९८ ।। 'जाओ गुणमेढीओ अण्णव सकागति तायो वत्तइरसामो। त जा-उवमममम्मत्तगुणमेठी सजढामजदगुणसेसी अधापमत्तगुणसेढी पदाओ तिणि गुणसेढीओ'अप्पमत्थ मरणेण वि मदम्स परभवे दिसति । सेमासु गुणसेढीसु मीणामु अप्पसत्यमरण गवे।' -पटग्व०, पु०१५, पृ० २९७ ॥
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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