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________________ छक्खडागम . ५५ पाहुग्गो उपदेशो भेद बतलाया है। वहीं लिगा है I अनिवृत्तिारणो कालगे रारयातभाग शेष रहने पर रत्यानगृति भादि गोलह प्रतियोका क्षय करता है, फिर अन्तर्मुहर्त विताार आठ कपायोका भय मारता है, यह रातकम्गपाहमा उपदेश है। किन्तु कापायप्राशत का उपदेश है कि पहले माठ पायो क्षय हो जाने पर पीछे एक अन्तर्मुहर्तमे पूर्वोत्त गोलह प्रतियो का क्षय करता है।' यहां जो सतकम्मगाहटो नामगे कायन है वह पट्मण्टागगमें नहीं मिलता। अत पट्गागमगे गतकामपाहुः भिन्न होना चाहिए । राम्पूर्ण धवलाटीकाम रातकम्गपाहुना उरलेग तीन बार माया है | उसमसे उपयोगी दो उल्लेसोफी चर्चा गहां की गई है। अब देगना यह है कि क्या महाकर्मप्रकृतिपातका नाग गतकम्गपाहुर है ? महाकम्मायडिपाहुया उल्लेग धवलाटीकामे छ गात बार आया है। तीन बार तो उसका उल्लेप भगवान् भूतवलिके निमित्तिमे आया है। एक' जगह लिखा है कि भूतबलि भगवान्ने महाकम्मपयडिपाहुडका उपसहार करके छ सण्डोकी रचना की । दूगरी जगह लिया है कि भूतवलि भट्टारक अगवद्ध बात नही कह गकते, क्योकि महाकर्मप्रकृतिप्रागृतस्पी अमृतके पीनरो उनका समस्त रागटेप-मोह दूर हो गया था। तीगरी जगह लिया है कि भूतवलि भगवान चोवीस अनुयोगद्वारम्वस्प महाकम्मपडिपाहुडके पारगामी थे। इग तरह तीन उल्लेस तो भूतवलिके सम्बन्धमे आये है । शेप तीन उल्लेस चर्चाको प्रकरणसे आये है । एक जगह लिखा है कि दस प्रकृतियोकी उदयव्युच्छित्ति मिय्यादृष्टि गुणस्थानके अन्तिम समयमे होती है, यह महासम्मपयडिपाहुडका उपदेश है। वर्गणाखण्डके स्पर्श अनुयोगद्वारमें लिखा है कि अध्यात्मविपयक इस सण्डग्रन्यमे कर्मम्पर्शप्रकरण प्राप्त है। महाकम्पप्रकृतिप्रागृतमे तो द्रव्यस्पर्ग, सर्वस्पर्श और कर्मरगर्ग तीनोका प्रकरण है। १. 'महाकम्गपयटिपाटमुवमहरिऊण छक्खटाणि कयाणि। -पटग०, पु०९, १०१३३ । २. 'ण चामवर भूदवलिभटारओ परुवेदि महाकामापयटिपाटअगियवाणेण ओसारिदा मेसरागटोममोहत्तादो'-पु. १०, पृ० २७४ ७५ । ३ 'चउवीसअणियोगधारमस्वमहाकम्मपयटिपाहुटपारयरस भूरवलिभयवतरम' । पु० १४, पृ० १३४।। ४ 'दसण्ह पयटीण मिच्छाठिस्स चरियसमयमिग उदयवोच्छेदो।' एसी महाकम्मपयडि. पाटउवण्मो-पु०८, पृ०९। ५ 'एद सदगयमाप्पविसय पडुच्च कम्मफामे पयदमिदि भणिद । महाकम्मपयटिपागुडे पुण दव्वफामेण सवफासेण कम्मफासेण पयद,'-पु० १३, ५० ३६ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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