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________________ कसायपाहुड ३९ फल देनेका नाम उदीरणा है । जैसे-आम पेडपर लगा-लगा गके तो वह सामयिक पकना है और उसे कच्ची अवस्थामें तोडकर भूसे वगैरहमें दवाकर जल्दी पका लिया जाये तो वह असमयका पकना है। इसी तरह बधे हुए कर्म जीवके परिणामोका निमित्त पाकर असमयमे भी उदयमें लाकर नष्ट किये जा सकते है उसे उदीरणा कहते है । बन्धे हुए कर्ममें अपने अच्छे-बुरे परिणामोके प्रभावसे स्थिति-अनुभागको कम कर देना अपकर्पण करण है और बढा देना उत्कर्पण करण है। परिणामोसे कर्मको इस योग्य कर देना कि वह अमुक समय तक उदयमे न आसके उसे उपशम करण कहते है । परिणामोक द्वारा एक कर्मको अपने सजातीय अन्य कर्मरूप परिणमा देना सक्रम करण है। कर्मकी उस अवस्थाको निधत्ति कहते है जिसमें न तो उसे उदयमे लाया जासके और न अन्य कर्मरूप ही किया जा मके । और उस अवस्थाको निकाचना कहते है जिसमे कर्मका उदय, सक्रमण, उत्कर्पण, अपकर्पण चारो ही सभव न हो। ___ इन आठ कर्मोमें सबसे प्रधान मोहनीय कर्म है । उसके दो मुख्य भेद है-१ दर्शनमोह और २ चारित्रमोह । दर्शनमोहके उदयमें जीवको अपने स्वरूपकी रुचि श्रद्धा, प्रतीति नही होती और जब तक वह न हो तव तक उसका समस्त धर्माचरण निरर्थक होता है, उसके होने पर ही मुक्तिका द्वार खुलता है। चारिनमोहके भेद कपाय है। इस ग्रन्थमे केवल एक मोहनीयकर्मका ही विवेचन है, उसीके सत्त्व, बन्ध, उदय, सक्रमण, उपशम और क्षयका विवेचन है । प्रारम्भके अधिकारोमे प्रकृतिसत्त्व, स्थितिसत्त्व, अनुभागसत्त्व और प्रदेशसत्व आदिका कथन है। इनके साथ ही बाईसवी गाथा समाप्त होती है। तेईसवी गाथा बन्धक अधिकारसे सम्बद्ध है। इसमें कहा है कि 'कितनी प्रकृतियोको बाधता है ? कितना स्थिति-अनुभागको बाधता है ? कितने प्रदेशोको वाधता है ? कितनी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशका सक्रमण करता है ?' बन्धका कथन तो नहीं किया, सक्रमका कथन आचार्य गुणधरने पैतीस गाथाओके द्वारा किया है । एक प्रकृतिका तथा उसकी स्थिति, अनुभाग और प्रदेशका अन्य सजातीय प्रकृति आदिमे परिवर्तनको सक्रम कहते हैं। यह भी चार प्रकारका है--प्रकृति-सक्रम, स्थितिसक्रम, अनुभागसनम और प्रदेशसक्रम । इन्हीका इसमें विवेचन है। आगे चार गाथाओसे वेदक अधिकारका कथन है। ये चारो गाथाएँ भी प्रश्नात्मक है । यथा-कितनी प्रकृतियोका उदयावली में प्रवेश कराता है ? और किन जीवोके कितनी प्रकृतियाँ उदयावलीमें प्रविष्ट होती है ? क्षेत्र, भव, काल, और पुद्गलको निमित्त करके कितने कर्मोका स्थिति, विपाक और उदयक्षय होता है ? आशय यह है कि कर्मोके फल देनेको उदय कहते है । इसके दो रूप है-उदय
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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