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________________ ४० जैनसाहित्यका इतिहास और उदीरणा । कर्मोकी स्थिति यथाक्रम पूरी होने पर फल देना उदय है । और तप आदिके द्वारा बलपूर्वक स्थितिका अपकर्पण करने कर्मों को उदयमे ले आना उदीरणा है । इन्हीका विवेचन उग अधिकार है। आगे विवचन उत्तरकालमै वृत्तिकार और टीकाकारने किया। ___इसके आगे सात गाथाओसे उपयोग अधिकारका कयन है । ये गाथाएं भी प्रश्नात्मक है । यथा-किमी कपायमें एक जीवा उपयोग कितने काल तक होता है ? किस उपयोगका काल किगसे अधिक है ? कौन जीव किंग कपायगे निरन्तर एक सदृश उपयोगमें रहता है आदि । आगे गोलह गाथाओगे चतुस्थान-अर्याधिकारका कथन है । इगम क्रोध, मान, माया और लोभके नार-चार प्रकागेका कथन है । इमीगे उगे चनु स्थान नाम दिया है । ये गायाएं प्रश्नात्मक नहीं है, विवरणात्मक है । केबल अन्तकी दो गाथाएं प्रश्नात्मक है। क्रोधादिके उत्तरोत्तर हीनताकी, अपेक्षा चार ग्यान जिनागममे प्रगिद्ध हैक्रोध चार प्रकारका है---पापाण-रेसाके ममान, पृथिवी-गाके समान, बालू-रेखाके समान और जल-रेखाके ममान । मानके भी चार भेद है-पत्थर, हड़ी, लाडी और लताके ममान । मायाके भी चार प्रकार है-वांगकी जड, मेटेके मोग, गोमूत्र और अवलेखनीके समान । तथा लोभके भी चार प्रकार है-कृमिगग, अक्षमल, पाशुलेप और हल्दीगे रगे वस्त्रके ममान । आगे इनके अनुभागकी हीनाधिकताका विवेचन है। आगे पाँच गाथाओसे व्यजन अधिकारका विवेचन है। इनमे नारो कपायोके समानार्थक नाम बतलाये है । जैसे--क्रोध, कोप, रोप आदि । मान, मद, दर्प, माया, निकृति, वचना, काम, राग, निदान, लोभ आदि । यहाँ तक कर्मरूप कपायोका काथन करनेके पश्चात् आगेके अधिकारोमे दर्शनमोह और चारित्रमोहके उपशमन तथा क्षपणका कथन है। सबसे प्रथम मोक्षमार्गी जीवको उपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है । अत सम्यक्त्व-अधिकारमे प्रथम चार गाथाओके द्वारा तो कुछ प्रश्न उपस्थित किये गये है। जैसे-दर्शनमोहके उपशामकका परिणाम कैसा होता है ? किस योग, कषाय, उपयोग, लेश्या और वेदसे युक्त जीव दर्शनमोहका उपशम करता है ? पन्द्रह गाथाओसे सम्यग्दर्शनसे सम्बद्ध वातोका विवेचन है । जैसे-दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम करने वाला जीव चारो गतियोमें होता है तथा वह नियमसे पचेन्द्रिय सज्ञी और पर्याप्तक होता है। दर्शनमोहका उपशम होनेपर सासादन भी हो जाता है। किन्तु क्षय होनेपर सासादन नही होता। साकार उपयोग वाला
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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