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________________ ३८ जैनसाहित्यका इतिहास मानता है । उराकी मान्यता है कि इस लोकर्म सूक्ष्ग कर्मगुद्गलम्कन्ध भरे हुए है, जो इरा जीवनी कायिका, वाचनिा या मानसिक प्रवृनिगे, जिगे जैन गिदान्तमे योग कहा है, आष्ट होकर ग्वत आत्मागे बद्ध हो जाते है और आत्माम वर्तमान कपायके अनुसार उनमे स्थिति और अनुभाग पर जाता है। जब वे कर्म अपनी स्थिति पूरी होने पर उदगमे आने है तो अच्छा या बुग फर देते है । उग तरह जीव पूर्ववद्ध कार्गके उदय से प्रोनादिकपाय गारता है और उगगे नवीन कमा वन्ध करता है। कर्मगे कपाय और नयायसे कर्मबन्धकी यह पराग अनादि है। इनी वन्धनमे छूटनेका उपाय धर्म माना जाता है । कर्मवन्ध चार भंद है-प्रनिबन्ध, रियतिवन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशवन्न । कर्मोग ज्ञानको घातने, मुग्गदु खादि देनेका स्वभाव पाना प्रकृतिवन्ध है। कर्ग बन्धनेपर जितने गय तमा आत्माके साथ बद्ध रहेगे, उस समयकी मर्यादाका नाम स्थितिवन्ध है। कगं तीन या मन्द जैसा फल दे उग फलदानकी शक्तिका पहना अनुभागवन्ध है। कर्मपरमाणुओकी सरयाके परिमाणका नाम प्रदेशवन्ध है । प्रकृतिवन्ध और प्रदेनवन्ध योगमे होते है और स्थितिबन्ध एव अनुभागवन्ध कपायम होते है । मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिका नाम योग है । यह योग जितना तीन या मन्द होता है, तदनुमार ही पीद्गलिक कर्मस्कन्ध आत्माकी और आकृष्ट होते हैं। जैसे हवा जितनी तेज, मन्द चलती है, तदनुसार ही धूल उडती है । और कपाय-क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे-तीन या मन्द होते है, तदनुसार ही कर्मपुद्गलोमे तीन या मन्द स्थिति और अनुभाग पडता है। इस तरह योग और कपाय बन्धके कारण है। इनमें भी कपाय ही ससारकी जड है। कर्मके आठ मूल भेद है-१ ज्ञानावरण-जो आत्माके ज्ञानगुणको ढाकता है, २ दर्शनावरण-जो आत्माके दर्शनगुणको ढाकता है, ३ वेदनीय-जो जीवको सुख-दुखका अनुभव कराता है, ४ मोहनीय-जो जीवको अपने स्वरूपके सवधमें विपरीत वुद्धि पैदा करता है, ५. आयु-जिसके उदयमे जीव किसी एक जन्ममें अमुक समय तक रहता है, ६ नाम-जिसके उदयसे जीवका नया शरीर वगैरह वनता है, ७ गोत्र-जिसके उदयमे जीव उच्च या नीच कहलाता है और ८ अन्तराय-जो जीवके कायोमे वाधा डालता है। ये आठ कर्म मूल है । इनके १४८ भेद है, जिन्हे कर्मप्रकृतियाँ कहते है । इन कर्मोकी दस अवस्थाएँ होती है, उन्हे करण कहते है। सबसे प्रथम वन्ध करण होता है-जीव कर्मसे वधता है या कर्म जीवसे बधता है। बधनेके पश्चात् ही कर्म तत्काल फल नही देता, उस अवस्थाको सत्ता कहते है । फल देनेका नाम उदय है । फल देनेके भी दो प्रकार है-समय पर फल देनेका नाम उदय है और असमयमें
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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