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________________ कसायपाहुड ३७ क्षपकका जघन्यकाल उत्तरोतर विशेष अधिक है । इसी तरह आगे इनका उत्कृष्टकाल कहा है । जैन सिद्धान्त में चर्चित उक्त विपयोको हृदयगम करनेके लिए फालके अल्पबहुत्वका कथन अपना विशेष महत्व है। इसीसे आचार्य गुणधरने ग्रन्थके प्रारम्भ में छह गाथाओसे उसका कथन किया है। इसके पश्चात् पन्द्रह अधिकारोसे सम्बद्ध गाथाएँ प्रारम्भ होती है । सबसे प्रथम अधिकार सम्बन्धी गाथामें यह शका की गई है कि 'किस नयकी अपेक्षा किस कषायमें पेज्ज ( प्रेय ) होता है अथवा किस कपायमें किस नयकी अपेक्षा ढेप होता है ? कौन नय किस द्रव्यमे दुष्ट होता है अथवा कोन नय किस द्रव्यमे प्रेय होता है ?" इस आशकासूत्रका अभिप्राय यह है कि क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कपायोमेंसे किस नयको दृष्टिमें कौन कपाय राग है और कोन द्वेषरूप है ? रागद्वेपसे आविष्ट जीव किस द्रव्यको अपना अहितकारी द्वेषरूप मानता है और किस द्रव्यको रागरूप मानता है ? राग-द्वेप ही ससारकी जड है । इनके नष्ट हुए विना जीव ससारसे मुक्त नही हो सकता । अत उन्हीसे व विपयका प्रारम्भ होता है । आचार्य गुणधरने इस आशकासूत्रका स्वय कोई उत्तर नही दिया । यह कार्य चूर्णिसूत्रकार और उसके व्याख्याकारोने किया है । इससे आगे की गाथामें कहा है- 'मोहनीयकर्मकी प्रकृति-विभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभाग-विभक्ति, उत्कृष्ट अनुत्कृष्टप्रदेश - विभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिककी प्ररूपणा करना चाहिए ।' इस एक गाथाके द्वारा ही इस गाथामें आगत अधिकारोका कथन आचार्य गुणधरने कर दिया है । वृत्तिकार और टीकाकारोने प्रत्येक अधिकारका पृथक्पथक विवेचन किया है । यहाँ प्रसंगवश सक्षेपमे कर्मसिद्धान्तपर थोड़ा-सा प्रकाश डालना उचित होगा । कर्म - सिद्धान्त - कसायपाहुड, छक्खडागम आदि समस्त करणानुयोगविषयक साहित्य कर्मसिद्धान्तसे सम्बद्ध है । अत उस सिद्धान्तका सामान्य परिचय यहाँ दिया जाता है । यह तो प्राय सभी परलोकवादी दर्शनोने माना है कि आत्मा जैसे अच्छे या बुरे कर्म करता है, तदनुसार ही उसमें अच्छा या बुरा सस्कार पड जाता है और उसे उसका अच्छा या बुरा फल भोगना पडता है । परन्तु जैनधर्म जहाँ अच्छे या बुरे सस्कार आत्मामे मानता है वहाँ सूक्ष्म कर्मपुद्रलोका उस आत्मासे बन्ध भी 1
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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