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________________ ३४ जनसाहित्यका इतिहास जाता है उसके सर्व अनुभागविशेषोगे संक्रमण होता है। किन्तु उदय मध्यमकृष्टिसे जानना चाहिये ।। २१९ ॥ इम गाथा |' पूर्वि तो पृच्छासूत्रम्प है किन्तु उत्तरार्धको चूणिसूत्रकारने वागरणसुत्त कहा है। जिस गाथाके द्वारा किसी विपयकी सूचना की गई हो उमको 'सूचनासूत्र' कहा है। जैसे गाया ६७ के 'केवडिया उवजुत्ता' पदमे द्रव्यप्रमाणानुगम, 'सग्मिीसु च वग्गणाकमाएसु' पदमे कालानुगम, 'केवडिया च कमाए' पदमे भागाभाग, और 'के के च विमिस्सदे केण' पदमे अल्पबहुत्व, इस प्रकार ये चार अनुयोग तो सूत्रनिबद्ध है । किन्तु शेष चार अनुयोग सूचनास्प अनुमानमे ग्रहण कर लेना चाहिये। कसायपाहुड शैली गाथाओके उक्त विवरणसे कमायपाहुडकी शैलीका आभास मिल जाता है । रचनाकी दृष्टिने गाथाओकी शब्दावली क्लिष्ट नहीं है किन्तु जैन कर्मसिद्धान्तसे सबद्ध होनेके कारण जैन कर्मसिद्धान्तका ज्ञाता ही उनका रहस्य ममझ सकता है । परन्तु अधिकतर गाथाएं पृच्छारूप है-उनमें प्रत्येक अधिकारसे मबद्ध विषयोको प्रश्नके रूपमे निर्दिष्ट किया गया है किन्तु कही तो उन प्रश्नोसे मम्बद्ध कुछ आवश्यक वातोको सूत्ररूपसे कह दिया गया है, अन्यथा प्रश्नोके द्वारा ही विषयोकी सूचना देकर ज्यो-का-त्यो छोड दिया गया है। इसका कारण यह है कि इस ग्रन्थकी रचना जनसाधारणके लिये नही की गई है, किन्तु जैन कर्मसिद्धान्तके पारगामी बहुश्रुतोके लिये की गई है। अत इसके पृच्छासूत्रोमें उठाये गये प्रश्नोको हृदयगम करके उनका समाधान वही कर सकता है जो आर्यमक्ष और नागहस्तीकी तरह उस विषयका मर्मज्ञ हो । इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें जो यह लिखा है कि गुणधर आचार्यने अपने द्वारा रचित कसायपाहुडकी गाथाओका व्याख्यान आर्यमक्षु और नागहस्तीको किया, उसमें कितना तथ्य है, यह कहना तो शक्य नहीं है, किन्तु इसमें सन्देह नही कि गुणधराचार्यने कसायपाहुडकी रचना करके अवश्य ही उनका व्याख्यान अपने १ 'बचो व सकमो वा णियमा सन्वेसु ठिदिविसेसु। सन्वेसु चाणुभागेसु मकमो मनिझमो उदओ ॥२१९॥-'सबेसु चाणुभागेसु मकमो मज्झिमो उदओ ति एद मन्च वागरण सुत्त-क. पा. सू, पृ० २८३ । २ 'केवडिया उवजुत्ता सरिसीसु च वग्गणाकसाएस' चेति एदिस्से गाहाए अत्थ विहासा एसा गाहा सूचणासुत्त । एदीए सूचिदाणि अठ्ठ अणिोगद्दाराणि । -क. पा सू, पृ० ५८५ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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