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________________ कसायपाहुड ३५ किमी बहुश्रुत शिष्यको अवश्य किया होगा और वही व्याख्यान साक्षात् या परपरासे आर्यमक्षु और नागहस्तीको प्राप्त हुआ होगा। यदि ऐसा न होता, तो कसायपाहुडरूपी गागरमें जो श्रुत-सागर भरा हुआ है उसका उद्घाटन करना शक्य नही था। प्रश्नात्मक प्रणाली बहुत प्राचीन है। बौद्धोके अभिधम्मपिटककी शैली भी प्रश्नात्मक प्रणालोको लिये हुए है। प्रश्न और उत्तरके रूपमें विषयको समझाया गया है। श्वेता० आगमसाहित्यमें भी इस प्रणालीके दर्शन होते है । भगवतीसूत्र तो प्रश्नोत्तररूपमें ही है। गीतम गणधरके प्रश्नोका उत्तर भगवान् महावीर देते है । सभवतया प्रश्नात्मक प्रणाली उसीकी सूचक है, क्योकि भगवान महावीर गौतम गणधरके प्रश्नोंका उत्तर देते थे। उसीसे श्रुतकी धाराको गति मिलती थी। वीरसेन स्वामीने 'जयधवलामें प्रश्नात्मक प्रणालीके विपयमें यही समाधान किया है। आचार्य यतिवृपभने भी अपने चूर्णिसूत्रोमें इस प्रणालीको अपनाया है। उसका व्याख्यान करते हुए यह शका उठाई गई है कि यह पृच्छासूत्र किस लिये कहा है ? इमका उत्तर दिया है-शास्त्र की प्रामाणिकता बतलानेके लिये । इम पर पुन शका की गई कि पृच्छाके द्वारा शास्त्रको प्रामाणिकता कैसे सिद्ध होती है? पुन उत्तर दिया गया कि यह पृच्छा गौतम स्वामीने तीर्थङ्कर भगवान महावीरसे की है, अत इससे शास्त्रकी प्रमाणिकताका बोध होता है । वीरसेन स्वामीने इस सम्बन्धमें इतना और भी लिखा है कि 'इस पृच्छासूत्रके द्वारा चूर्णिसूत्रकारने अपने कर्तृत्वका निवारण किया है अर्थात् इससे उन्होने यह सूचित किया है कि उन्होने जिस तत्त्वका कथन किया है वह उनकी अपनी उपज नही है बल्कि गौतम गणधरने महावीर स्वामीसे जो प्रश्न किये थे और उनका जो उत्तर उन्हें भगवानसे प्राप्त हुआ था, उसे ही उन्होने यहाँ निवद्ध किया है।' अतएव सक्षेपमें कसायपाहुडकी शैली प्रश्नोत्तररूप मूत्र-शैली है। यह शैली वैदिक वाङ्मय और बौद्ध वाङ्मयके प्राचीन ग्रन्थोमें भी पायी जाती है । कयायपाहुडका विपय-परिचय पहले लिख आए है कि आचार्य गुणधरने सोलह हजार पद प्रमाण कसायपाहुडको मात्र दो सौ तेतीस गाथाओमें उपसंहृत किया है तथा उनमेंसे कुछ गाथाएँ सूचनात्मक, कुछ पृच्छात्मक और कुछ व्याकरणात्मक या व्याख्यात्मक है । सर्वप्रथम गाथामें आचार्य गुणधरने यह बतलाया है कि पांचवें पूर्वकी दसवी वस्तुमें पेज्जपाहुड नामक तीसरा अधिकार है उससे यह कसायपाहुड उत्पन्न हुआ १ क० पा०, मा २, ५ २११ । - - - - - - -
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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