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________________ - कसायपाहुड ३३ रूप गाथाओको 'भा यगाथा' कहा है। तथा अन्य गाथाओको 'सुत्तगाहा' शब्दसे निर्दिष्ट किया है। 'इन्द्रनन्दिने भी अपने श्रुतावतारमें सब गाथाओको गाथासूत्र कहा है। किन्तु उनमेंसे १८३ को ( १८० होना चाहिये) मूलगाथा और शेप ५३ को विवरणगाथा कहा है। किन्तु जयधवलाकारने 'मूलेगाथा' का अर्थ भी सूत्रगाथा ही किया है। सभवतया वे १८० गाथाओको मूलगाथा या सूत्रगाथा मानते है। किन्तु चूर्णिसूत्रकारने 'मूलगाथा' शब्दका व्यवहार केवल चारित्रमोहक्षपणानामक अधिकारमें आगत सभाष्य-गाथाओके लिये ही किया है और भाष्यगाथाओको छोडकर शेप सवको सूत्रगाथा कहा है। यही हमें उचित प्रतीत होता है । चूणिसूत्रकार श्रीयतिवृषभने कतिपय सूत्रगाथाओको उनके विषय-प्रतिपादनके अनुसार कुछ अन्य नाम भी दिये है । वे नाम है-पुच्छासुत्त, वागरणसुत्त और सूचणासुत्त । जिन गाथाओमें किसी विषयको पृच्छा की गई हो, कोई वात पूछी गई हो वे गाथाएँ पृच्छासूत्र कही गई है। चारित्रमोहक्षपणानामक अधिकारकी तीस मूलगाथाएँ पृच्छासूत्र है । अन्य अधिकारोमें भी पृच्छात्मक गाथासूत्रोकी पर्याप्त सख्या पाई जाती है। पृच्छासूत्रका उदाहरण इस प्रकार है 'किस कपायमें एक जीवका उपयोग कितने काल तक होता है ? कौन उपयोगकाल किससे अधिक है और कौन जीव किस कषायमें निरन्तर एक-सा उपयोगी रहता है ॥ ६३ ॥ जयधवलाकारने 'वागरणसुत्त' का अर्थ किया है व्याख्यानसूत्र । अर्थात जिसके द्वारा किसी विषयका व्याख्यान किया जाता है उसे व्याकरणसूत्र कहते है। इसका उदाहरण-'विवक्षित कृष्टिका बन्ध अथवा सक्रमण नियमसे क्या सभी स्थितिविशेपोमें होता है ? विवक्षित कृष्टिका जिस कृष्टिमें सक्रमण किया १ अधिकाशीत्या युक्त शत च मूलमत्रगाथानाम् । विवरणगाथाना च अधिक पञ्चाशत मकापीत् ॥१३॥ एव गाथासूत्राणि पञ्चदश महाधिकाराणि प्रविरच्य व्याचख्यौ स नागहस्त्यार्यमाभ्याम् ॥१५४॥ 'मूलगाहाओ णाम सुत्तगाहाओ'-क० पा० भा०। ३ 'पत्थेव पयटी य मोहणिज्जा एदिस्से मूलगाहाए अत्थो ममत्तो। क. पा० मा० ४ 'केवचिर उवजोगो कम्मि कसायम्मि को व केणहियो। को वा कम्मि कसाए अभिक्ख मुवजोगमुवजुत्तो ॥६॥ Pm"
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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