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________________ ३२ : जैनसाहित्यका इतिहास कुछको 'सुत्तगाहा', कुछको 'गाहा' और कुछको 'गभामगाहा' कहा है। ___ चारित्रमोहकी क्षपणा नामक पन्द्रहवे अधिकाग्मे कुल अट्टाईग गाथाए है। उनमेमे मातको' 'गाहा' और शेप इनकीगको 'सभामगाहा' कहा है। जिन गाथाओका व्याख्यान करनेवाली भाष्यगायाएं है उन्हें 'मभामगाहा' (गभाग्यगाथा) कहा है। २८ मेमे इक्कीग गाथा ऐसी है जिनकी भाग्यगाथाए भी है, अन उन्हें मभाष्यगाया कहा है। और गेप गातको केवल 'गाहा' लिया है। किन्तु 'मत्तेदा गाहाओका व्यास्यान करते हुए जयधवलाकाग्ने' लिगा है कि 'ये गात गायागं मूनगाथाएं नही है, क्योकि उनके द्वाग सूचित किये गये अर्थका व्याग्यान करनेवाली भाज्यगाथाओका अभाव है।' ___ इसका मतलब तो यह हुआ कि गभाष्यगाथाओको ही गूगाया वाहना चाहिए । और ऐमा माननेमे केवल इक्कीस गाथाएं ही मूत्रगाथा ठहरती है। गाथामख्या नौकी उत्थानिकामे जयधवलाकारने लिगा है-' अब पन्द्रहवे अधिकारमे आई अट्ठाईस गाथाओमेमे कितनी मूरगाथाए है और कितनी मूत्रगाथाएं नही है, इसप्रकार पूछने पर अमूत्रगाथाओका प्रमाण वतलानो लिए आगेका मूत्र कहते है । जिममे अनेक अर्थ सूचित हो उमे सूत्रगाथा कहते है और जिसमे अनेक अर्थ मूचित न हो उमे अमूरगाथा कहते है ।' इगमे भी उक्त कथनका ही ममर्थन होता है। किन्तु गाथामख्या दोमे एकसी अस्सी गाथाओको सूत्रगाया कहा है और जयधवलाकारने उसका समर्थन किया है। 'वोच्छामि सुत्तगाहा जयिगाहा जम्मि अत्यम्मि' पदका व्याख्यान करते हुए जयधवलाकारने लिखा है-'उन एकमी अस्मी गाथाओमेमे जिस अधिकारमे जितनी सूत्रगाथाएँ पाई जाती है उन सूत्रगाथाओका मैं कथन करता हूँ। इस सूत्रगाथाके तीसरे चरणमे स्थित गाथाशब्दके साथ लगे हुए 'सूत्र' शब्दको इमी गाथाके चौथे चरणमे स्थित 'गाथा' शब्दके साथ भी लगा लेना चाहिये ।' इसप्रकार जयधवलाकारने मभी गाथाओको सूत्रगाथा स्वीकार किया है । ऐमी स्थितिमे यही समाधान उचित प्रतीत होता है कि गाथासख्या नौमे जो मात गाथाओको असू त्रगाथा कहा है वह आपेक्षिक कथन है । चारित्रमोहक्षपणा नामक अधिकारको इक्कीस गाथाओकी दृष्टिसे ही वे असूत्रगाथाएं है क्योकि उनकी भाष्यगाथाओका अभाव है। , 'मत्तेढा गाहाओ अण्णाओ मगामगाहाओ ॥९॥' • क०पा०, मा० १, पृ० १६९ ३ 'का सुत्तगाहा ? सूचिदणेगत्था। अवरा असुत्तगाहा।' वही, पृ० १६८ । ४. वही, पृ० १५३ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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