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________________ ४५० · जैनसाहित्यका इतिहास हुई है । अत उसके बाद ही यह टीका रची गई है यह निश्चित समझना चाहिये, क्योकि जीवकाण्ड और त्रिलोकसारसे भी उसमे गाथाएँ उद्धृत है । अस्तु, गतकके पश्चात् सित्तरीकी टीका है। इसमें टीकाकारने मूल सित्तरी तो प्राय पूर्ण ले ली है किन्तु भाष्य गाथाएँ केवल ३० के लगभग ही ली है। टीका में शतककी टीकाका कई जगह उल्लेख किया गया है। अन्तमें लिखा है-'एव सत्तरि चूलिया समत्ता'। टीकामे 'पञ्चसग्रह' नामका निर्देश दृष्टिगोचर नहीं होता। सिद्धान्तसार माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला वम्बईसे प्रकाशित सिद्धान्तसारादिसग्रह नामक २१वें पुष्पके प्रारम्भमें सिद्धान्तसार नामक प्रकरण ज्ञानभूपणके भाष्यके साथ प्रकाशित हुआ है । इसमें ७९ प्राकृत गाथाएँ है । उनके द्वारा ग्रन्थकारने चौदह मार्गणाओंमे जीवसमासोका, गुणस्थानोका, योगोका और उपयोगीका तथा चौदह जीवसमासोमें योगोका और उपयोगोका, व चौदह गुणस्थानोमें योगोका और उपयोगोका, फिर चौदह मार्गणाओमे चौदह जीवसमासोमें और चौदह गुणस्थानोमें वन्धके ५७ प्रत्ययोका कथन किया है । ___ इस तरहसे ग्रन्थकारने थोडी-सी गाथाओके द्वारा काफी सैद्धान्तिक वातोका कथन किया है। ग्रन्थकार सिद्धान्तासारादिसग्रहके प्रारम्भमें ग्रन्थकर्ताका परिचय देते हुए श्री नाथूराम जी प्रेमीने लिखा है-'इस सग्रहके प्रथम ग्रन्थ 'सिद्धान्तसार' के मूलकर्ता जिननामके आचार्य है जैसा कि उक्त ग्रन्थकी ७८वी गाथासे और उसकी टीकासे भी मालूम होता है । प्रारम्भमें 'जिनेन्द्राचार्य' नाम सशोधककी भूलसे मुद्रित हो गया है।' सम्पादक और सशोधक प० पन्नालालजी सोनीने भी उक्त गाथाके पादटिप्पणीमें लिखा है-'प्रारम्भे हि जिनेन्द्राचार्य' इति विस्मृत्य लिखितोऽस्माभिरन्यमूलपुस्तक विलोक्य' अर्थात् अन्य मूल पुस्तकको देखकर ग्रन्थके प्रारम्भमे हमने भूलसे 'जिनेन्द्राचार्य लिख दिया है। हमारे सामने भी आराके जैनसिद्धान्त भवनकी हस्तलिखित प्रतिके अन्तमे ग्रन्थकारका नाम जिनेन्द्राचार्य ही लिखा है । गाथा ७८में 'जिनइदेण पउत्त' पाठ है। 'जिनइद' का संस्कृत रूप जिनेन्द्र होता है जिनचंद्र नही होता। किन्तु भाष्यकार ज्ञानभूपणने 'जिणइदेण जिनचन्द्रनाम्ना, सिद्धान्तग्रन्थ वेदिना' लिखा है । इससे सिद्धान्तसारके कर्ताका नाम जिनचद्र मान लिया गया है।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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