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________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४५१ किन्तु जिनेन्द्राचार्य नामके किसी ग्रन्थकारका पता अन्यत्रसे नही चलता जबकि जिनचद्र' नामके सिद्धान्त वेत्ता अनेक विद्वान् हो गये है। उनमेंसे एक धर्मसंग्रह श्रावकाचारके कर्ता मेधावीके गुरु और पाण्डव पुराणके कर्ता शुभचन्द्रके शिष्य थे । तिलोय पण्णत्तिकी दान प्रशस्तिमें मेधावीने अपनी गुरुपरम्पराका परिचय देते हुए सरस्वती गच्छके प्रभाचन्द्र-पद्मनन्दि-शुभचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्रका उल्लेख किया है जो सैद्धान्तिको की सीमा थे । उक्त प्रशस्ति वि०स० १५१९ में लिखी गई है और उस समय जिनचन्द्र वर्तमान थे। परन्तु प्रेमीजीने उन्हे सिद्धान्तसारका कर्ता नही माना है, क्योकि सिद्धान्तसारकी एक कनडी टीका प्रभाचन्द्रकृत है । और प्रभाचन्द्रका समय कर्नाटक कवि चरिते (द्वि०भा०)में तेरहवी शताब्दी अनुमान किया है। दूसरे जिनचन्द्र तत्त्वार्थसूत्रकी सुखवोधिका टीकाके कर्ता भास्करनन्दिके गुरु थे। इनका ठीक समय मालूम नही है । प० शान्तिराज शास्त्रीने वि०स० १३५३ के लगभग अनुमान किया है। इन्हें भी भास्करनन्दिने महासद्धान्त कहा है । यदि उक्त अनुमानित समय ठीक हो तो ये भी सिद्धान्तसारके कर्ता नही हो सकते। इस तरहसे सिद्धान्तसारके कर्ताका नाम तथा समय दोनो ही विवादग्रस्त है। किन्तु ग्रन्थके अन्तरग परीक्षणसे यह स्पष्ट है कि गोम्मटसारको पढकर ग्रन्थकारने उसकी रचना की है। उसका प्रारम्भ ही जीवकाण्डके अन्तकी दो गाथाओको लेकर हुआ है वे दोनो गाथाएँ इस प्रकार है सिद्धाण सिद्ध गई केवलणाण व दंसण खयिय । सम्मतमणाहार उवजोगाणक्कमपडत्ती ॥७३२॥ गुण जीव ठाण रहिया सण्णापज्जत्तिपाण परिहीणा । सेसणवमग्गणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होति ॥७३३॥ और सिद्धान्तसारके प्रारम्भकी दो गाथाएं इस प्रकार है जीवगुणठाणसण्णा पज्जत्तिपाण मग्गणाणवूणे । सिद्धतसारमिणमो भणामि सिद्धे णमसिता ॥१॥ सिद्धाण सिद्धगई दसण णाण च केवल खइय । सम्मत्तमणाहारे सेसा ससारिए जीवे ॥२॥ अत ग्यारहवी शताब्दीके पश्चात् ही सिद्धान्तसार रचा गया है । और चूंकि १ देखो-'जिनचन्द्र, ज्ञानभूपण और शुभचन्द्र' शीर्पक निवन्ध, जै०सा०३०, पृ० ३७८ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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