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________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य · ४४९ इसके बाद शतक है। मूल शतककी प्रत्येक गाथाका व्याख्यान टीकाकारने किया है किन्तु पञ्चसग्रह गत भाष्य गाथाएँ केवल तीस पैतीसके लगभग ली गई है शेषको छोड दिया है। अन्तमे लिखा है-'सदगपजिया समत्ता' । अर्थात् शतककी पजिका समाप्त हुई। शतकमें गत्यादि मार्गणाओमें बन्ध स्वामित्वका कथन कर लेनेकी सूचना एक गाथाके द्वारा दी गई है। उसकी टीकामें टीकाकारने मार्गणाओमें कर्मप्रकृतियोंके वन्धादिका कथन विस्तारसे किया है। उसके अन्तमें तीन गाथाएँ इस प्रकार है जह जिणवरोहिं कहिय गणहरदेवेहिं गथिय सम्म । आयरियकमेण पुणो जह गगणइपवाहुन्व ॥१२॥ तह पउमणदि मुणिणा रइयं भवियाण वोहणट्टाए । ओघेणादेसेण य पयडीण वधसामित्त ॥१३॥ छउमत्थिया य रइअ ज इत्थ हविज्ज पवयणविरुद्ध । त पवयणाइ कुसला सोहतु मुणी पयत्तेण ॥१४॥ इसमें कहा है कि जैसा जिनवरने कहा और गणधर देवोने सकलित किया फिर जैसा गगानदीके प्रवाहकी तरह आचार्य परम्परासे आया, वैसा ही ओघ और आदेशकी अपेक्षासे प्रकृतियोके बन्धस्वामित्वको भव्यजीवोको बोध करानेके लिये पद्मनन्दि मुनिने रचा। इस छद्मस्थके रचे हुएमें जो वात आगमविरुद्ध हो उसे प्रवचनमें कुशल मुनि प्रयत्न पूर्वक शुद्ध करें। ___यह पद्मनन्दि मुनि इस टीकाके रचयिता है अथवा टीकाकारने जहाँसे बन्धस्वामित्वको लिया है उसके रचयिता है, यह विना प्रमाणोके प्रकाशमें निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता। पद्मनन्दी नामके अनेक आचार्य हुए है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके कर्ताका नाम भी पद्मनन्दी था रज० प्रज्ञ० की प्रशस्तिमें उन्हे सिद्धान्त पारगामी भी लिखा है । तथा उसकी अन्तिम गाथा उक्त उद्धृत अन्तिम गाथासे वहुत अधिक मिलती है, जो इस प्रकार है छउमत्येण विरइय ज कि पि हवेज्ज पवयणविरुद्ध । मोधतु सुगीदत्था तं पवयणवच्छलत्ताए ॥१७०॥ तथा उसमें भी ग्रन्थकारका निर्देश 'मुणिपउमणदिणा' करके है। अत संभव है उन्होने वन्धस्वामित्वका कथन किसी ग्रन्थमें किया हो और उसीसे टीकाकारने उसे लिया है। ज० प्र० की रचना विक्रमकी ग्यारहवी शताब्दीके उत्तरार्धमें
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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