SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन साहित्यका इतिहास द्वितीय भाग पंचम अध्याय उत्तरकालीन कर्म - साहित्य पिछले अध्यायमे प्राचीन कर्म - साहित्यका इतिवृत्त निरूपित इस अध्यायमें विक्रमकी नवम शताब्दीसे उत्तरकालमें रचे गये विवेचन निवद्ध किया जायगा । किया गया है | कर्म -साहित्यका नि सन्देह उत्तरकालमें कई सारगर्भित कर्म - साहित्य सम्वन्धी कृतियाँ रची गयी है । लोकप्रियता और उपयोगिताकी दृष्टिसे इन रचनाओका अध्ययन कई शताब्दियोसे अनवच्छिन्न रूपसे होता चला आया है । आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल्लजीने गोम्मटसार जैसे ग्रन्थपर लोकभापामे विशाल और विशद टीका लिखकर इस ग्रन्थका मर्मोद्घाटन किया है । यही कारण है कि आज भी जिज्ञासुओंके स्वाध्यायका वह विषय बना हुआ है । घवला और जयधवला जैसी प्रचुर प्रमेययुक्त टीकाओने मूल ग्रन्थका रूप ग्रहण कर लिया तो इन ग्रन्थोके आधारपर सक्षेपमें कर्म सिद्धान्तका बोध कराने के हेतु उत्तरकालीन आचार्योंने स्वतत्ररूपमें कर्मसाहित्यका प्रणयन किया । उत्तरकालीन कर्मसाहित्यकी शैली, भाषा और वर्ण्य-विपयकी दृष्टिसे निम्न विशेषताएँ उपलब्ध होती है 1 १ सक्षेप किन्तु स्पष्ट रूपमें कर्मसिद्धान्तका निरूपण । २ संस्कृत और प्राकृत दोनो ही भाषाओका उपयोग | ३ वन्ध, उदय और सत्त्वका गुणस्थान क्रमसे स्पष्ट निर्देश । ४ गणितका बीजक्रम और अकक्रम रूपमें आलम्बन । ५ विभिन्न मत मतान्तरोका सक्षेपमें प्रकटीकरण । ६ शैली प्रसाद गुण युक्त और प्रवाह पूर्ण । ७ सरल और सुवोधताके हेतु काव्योपकरणोकी योजना | उत्तरकालीन कर्मसाहित्य करणानुयोग विपयक प्राचीन कर्मसाहित्यके उक्त विवरणके पश्चात् हम उत्तरकालीन कर्मसाहित्यकी ओर आते हैं । साहित्यके कालक्रमानुसारी पर्य
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy