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________________ ३७२ : जेनसाहित्यका इतिहास वेक्षणमे ऐसा प्रतीत होता है कि गाहित्यिक प्रतिभाग भी लाग होता गया है । विक्रमकी प्रथम सहस्राब्दी के मध्य काल तक तथा उसके पन्नाकी दो तीन शताब्दी पर्यन्त जैसी प्रतिभाभने जन्म लिया, महमा पर्यवसान लगभग वैसी प्रतिभाएँ दृष्टिगोचर नही होती। आचार्य गुणधर, पुष्पदन्त भूतबली, आचार्य यतिनृपभ आदिमं जो वाग्मिता, पाण्डित्य, बहुश्रुतत्व और रचनाचातुर्य था, आचार्य वीरसेन तक यह गन्द हो चला था । गभवतः कर्मविषयक आगमिक साहित्यके पारगामी वीरगन स्वामी, अन्तिम साहित्यकार थे जिन्होंने घवला भोर जयधवला जैसे प्रमबद्दल विस्तृत टीकाग्रन्थ रचे और उनसे पहले कर्मप्रकृति, पंचrग्रह जैसी गायावन्द मौलिक कृतियां रची गई । उन रचनाओके पदनात् जो कर्मविषयक गाहित्य उक्तकालमें रचा गया, वह प्राय' इन्हीका ऋणी है। या तो उन्ही के आधार पर उनका गकलन किया गया है या उन्होको परिवर्तित किया गया है । राव प्रथम हम एक परिवर्तित या स्पान्तरित कृति की ओर आते हैं । लक्ष्मणसुत उड्ढाकृत पञ्चसग्रह लक्ष्मणगुत उढाकृत पञ्चगग्रह एक दशक पूर्व ही प्राकृत पञ्चगग्रहके साथ भारतीय ज्ञानपीठगे प्रकाशित हुआ है । उनको प्रकाशमे लानेका श्रेय इसके सम्पादक प० हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री को है । इससे पहले न इस नामके किमी ग्रन्थकार को सुना गया था और न उनकी उग कृतिका हो कहींसे कोई आभान मिला था। हां, प्ररयात साहित्यकार आचार्य अमितगतिका एक पञ्चमंगह कई दशक पहले श्री माणिकचन्द ग्रन्थमालासे प्रकाशित हो चुका था और पञ्चसग्रह नामकी एक वही कृति दृष्ट श्रुत और अनुभूत थी । इसी नामकी किमी अन्य कृतिको कोई कल्पना भी नही थी । ये दोनो ही पञ्चगग्रह दि० प्राकृत पञ्चसग्रहके संस्कृत अनुष्टुपोमें परिवर्तित म्प है । यत अमितगति एक प्रख्यात ग्रन्थकार थे और उनके पचसग्रह को प्रकाशमें आये कई दशक हो चुके थे। दूसरी ओर श्रीपालसुत डढ्डा एक नये सर्वथा अपरिचित व्यक्ति थे । उनको एकमात्र कृति भी नई ही प्रकाशमें आई थी । अत सम्पादक प० हीरालालजी शास्त्रीने जव दोनोका तुलनात्मक अध्ययन किया तो उन्हें लगा कि एकने दूसरेका अनुकरण किया है । किन्तु यह तो कल्पना करना कठिन था कि अमितगति जैसे प्रख्यात ग्रन्थकार डढ्डा जैसे अज्ञात रचयिताका अनुकरण करेंगे । अत उन्होने यही माना कि डड्ढाने अमितगतिकी नकल की है फिर भी डड्ढाकी कृतिने शास्त्रीजी - को प्रभावित किया । उन्होंने अपनी प्रस्तावना में लिसा है- १ डड्ढा की रचना मूल गाथाओंकी अधिक समीप है, अमितगतिकी
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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