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________________ ३७० : जैनसाहित्यका इतिहास गप्ततिका माग रनगिता नयागवृत्तिकार अगरदेवमूरिने अपने भाग्यके 'प्रारम्भमे लिगा है कि सप्तति णिगी मनुगार मैं माठौं कोका फायन कर गा। अभगदेवमूरिगा अवसान वि० ग.११३५ में दुआ । अत' गित्तरी नूणिकी रचना उगसे पहले।ग मापारपर गोरखनालको उत्तरायघि विद्यमको ११वी शती निर्णीत होती है। तमा तिमित्तरी णिमें गतमा नागने पतक णिका निर्देश किया है मोर पतकणिका रननागाल पि. गं. ७५०-१००० निर्णीत किया गया है अत पूर्णिको रचना भी मी गालगो बीच में गतमणिये परनान किंगी गमय होनी पाहिए। गंभव है गित्तरीणिकाग्ने जयगवलाटोकाको देगा हो और जमे उन्होने पतग नाममे पतकणिका निर्देश किया है चंगे ही गसागपाहर नामने उसकी जयपवलाटीकाका निर्देश क्रिया हो गयोकि उनके द्वारा गचित विषय जयधवला में स्पष्टरपगे गिलते है, गमायपाट और चूणिगूपोनें तो उनका समेत अथवा निर्देगमान गिया गया है। १ 'नमिऊण महावीर कम्मट्ठपरूवण करिस्सामि । वधोदयसतेहि सत्तरिया चुन्निअणुसारा ॥१॥
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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