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________________ अन्य कर्मसाहित्य ३६१ स्वोप'ज्ञवृत्तिमें लिखा है कि कुछ 'आचार्य वामन को चौथा सस्थान मानते है किन्तु वह ठीक नहीं है । हमने खोजने पर गषिके कर्मविपाकमें वामनको चौथा और कुब्जकको पांचवा संस्थान पाया । यथा-- समचउरसे नग्गोहमंडले साइवामणे खुज्जे । हुडे वि य सठाणे तेसिं सरूव इम होइ ॥१११॥ तव क्या पचसग्रहकारने 'केचित्' के द्वारा गपिके मतका निर्देश किया है ? यदि ऐसा हो तो उन्हे गपिके पश्चात्का ग्रन्थकार मानना होगा। सिपि आचार्यने अपनी उपमिति भव प्रपञ्चकथा वि० स० ९६२ में रचकर समाप्त की थी। उसमें उन्होने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि लाट देशके निवृतिकुल में सूर्याचार्य हुए । उनका शिष्य छेल्ल महत्तर था जो ज्योतिर्विद था। उनका शिष्य दुर्गस्वामी था। उसने जैन साधुको दीक्षा ली थी। उसकाशिष्य मैं सिद्धर्षि हूँ । सिर्षिने लिखा है कि मेरे गुरु दुर्गस्वामीको तथा मुझे गर्गस्वामीने दीक्षा दी थी। इन्ही गर्गस्वामीको कर्म विपाकका रचयिता माना जाता है । अत उसका समय विक्रमकी दसवी शतीका पूर्वाध समझना चाहिए। और ऐसी स्थितिमें पचसग्रहकार चन्द्रषिको दसवी शतीसे पहलेका विद्वान नही माना जा सकता। और इस आधार पर उनका समय विक्रमकी १० वी शताब्दीका उत्तरार्ध माना जा सकता है । यद्यपि इस समयसे पहलेके रचे हुए प्रन्थोमें पचसग्रहके उद्धरण हमारे देखनेमें नही माये और इसलिए उक्त समयमें कोई असमजसता प्रतीत नही होती । तथापि उक्त आधार इतना पुष्ट नही है जिसके आधार पर उक्त समयको निर्विवाद रूपसे माना जा सके । क्योकि गर्गषिने अपने कर्म विपाकमें जो वामनको चौथा सस्थान गिनाया है सम्भव है किसी अन्य आधार पर गिनाया हो और उसीका निर्देश पंचसग्रह में किया गया हो। यद्यपि शतक चूणि हमें पचसग्रहकार रचित प्रतीत नही होती तथापि उसके आधार पर भी उसके कर्ताके विषयमें, चाहे वह चन्द्रर्षि हो या अन्य, विचार करना आवश्यक है। शतक चूणिमें ग्रन्थान्तरोसे उद्धृत पद्योका बाहुल्य है और वही एक ऐसा स्रोत है जिसके द्वारा चूणिके रचना कालके सम्बन्धमें किसी निष्कर्ष पर पहुचा जा सकता है। १ 'वामनस्य केचिच्चतुर्थ (थै स०) स्थान वदन्ति तन्न भवतीति ।-श्वे०प०स०, भा० १, पृ० २२० । २ जै० सा० इ० (गु), पृ० १८२ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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