SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६० : जैनसाहित्यका इतिहास उत्कृष्ट स्थितिका भाग देनेसे जो लब्ध जाता है उसमे पत्यका असख्यातवा भाग कम करनेसे उत्तरप्रकृतियोकी जघन्य स्थितिका प्रमाण माता है । और पचराग्रहके' अनुसार प्रत्येक उत्तर प्रकृतिकी अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका भाग देने से जो लप आता है वही उस उत्तर प्रकृतिको जघन्यस्थितिका प्रमाण होता है। चूणिमें पचसग्रहवाली वातको स्वीकार किया गया है किन्तु उसमें कर्मप्रकृतिकी तरह पत्यका असख्यातवा भाग कम भी किया गया है। श्वे० पच स० की टीकाम मलयगिरि ने लिखा है कि जीवाभिगम वगैरह में यही स्थिति मान्य है जो चूणिमें बतलायी है। दिपच सं० में भी यही स्थिति मान्य है । दि०५० स० की गाथाओके साथ स्थिति निर्देशक चूणिका मिलान करनेमे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उक्त चूर्णि की रचना दि० पं० स० की गाथाओको सामने रसकर की गयी है । दोनों में कयनका क्रम भी एक है। किन्तु शतकचूणिमें तथा १० स० को स्वीपज्ञ वृत्तिमे जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणके विशेषावश्यक भाष्यसे गाथाए उद्धृत की गयी है । मत दोनोकी रचना विक्रमकी सातवी शताब्दीके पूर्व ही हुई है यह निश्चित है। गुजरातके चालुक्यवशी नरेश कुमारपाल के समयमें हुए आचार्य मलयगिरिने पंचसंग्रह पर टीका रची थी। अत. पञ्चसग्रहको उत्तरावधि विक्रमकी वारहवी शती निश्चित होती है । देखना यह है कि विक्रमकी सातवीं शताब्दीके अन्तसे लेकर वारहवी शताब्दी पर्यन्त पाचसी वर्षों के अन्दर पञ्चस ग्रहको रचना कब हुई। इस कालके बीचमें हुए ग्रन्थकारोके ग्रन्योमें भी पञ्चसग्रहसे उद्धृत पद्य हमारे देखने में नही आये। पञ्चसग्रहसे भी कोई विशेष सहायता नही मिलती। हा, पञ्चसग्रहकी १. ' 'सेसाणुक्कोसाओ मिच्छत्तठिइए ज ल ।।४।। -~-इवे. ५० स०, भाग १ पृ. २५५ । २ 'जीवाभिगमादौ आचार्योंक्त जघन्यस्थितिपरिमाण पल्योपमासंख्येयभागन्यमुनमुक्तम् श्वे० ५० सं० पृ० २०७। ३. श० चू० गा० ३८-३९ मे-'जावन्ती अक्खराइ '-वि. भा० गा० ४४४ । 'इन्द यमणोणिमित-'कि० मा गा० १००। ४ सव्वस्स केवलिस्स वि जुगवं दो नथि उवओगा० वि० भा० गा० ३०९६ ।-इवे० प० स०, भा० १, पृ० १० ॥
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy