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________________ अन्य कर्मसाहित्य . ३४५ अन्तिम अधिकार होनेसे इस प्रकारका उपसहार उचित भी हो सकता है किन्तु बीचके केवल एक चतुर्थ अधिकारके अन्तमें इस प्रकारकी वात कहना, जो ग्रन्थकी समाप्ति के लिये ही उपयुक्त हो सकती है, इस बातको सूचित करती है कि शतक नामके किसी स्वतत्र प्रकरणका सग्रह इस अधिकारमें किया गया है उसीके कारण अधिकारका नाम 'शतक' रखा गया है । और यही बात सित्तरीके सवधर्म समझनी चाहिये । ऐसी स्थितिमे ये दोनो प्रकरण उस पचसग्रहकारके नही जान पडते जिसने पचसग्रहके आदिके तीन अध्याय रचे थे, क्योकि उनमें न कही दृष्टिवादका उल्लेख है और न अपनेको मन्दमति बतलाकर उसके सशोधनादिकी वात कही गई है। ५० फूलचन्द्रजी सिद्धातशास्त्रीने श्वे० सितरीके अपने अनुवादको भूमिकामें एक बात कही है कि शतक और सित्तरी की अन्तिम गाथाओमें कुछ साम्य प्रतीत होता है । यथा वोच्छ पुण सखेव णीसद दिट्ठीवादस्स ॥१॥ सित्त० कम्मप्यवायसुयसागरस्स णिस्सदमेताओ ॥१०४।। शतक जो जत्थ अपडिपुण्णो अत्थो अप्पागमेण बद्धोत्ति । त खमिऊण बहुसुया पूरेऊण परिकहतु ।।७२॥-सप्त० वधविहाण समासो रइओ अप्पसुयमदमइणावि । त वधमोक्खणिउणा पूरेऊण परिक्हेति ॥१०५॥–शतक प०जी का कहना है कि 'इनमें 'णीसद' अप्पणम, अप्पसुयमदमइ, 'पूरेऊणं परिकहतु' ये पद ध्यान देने योग्य है । ऐसा साम्य उन्ही ग्रन्थोमें देखनेको मिलता है जो या तो एककर्तृक हों या एक दूसरेके आधारसे लिखे गये हो । बहुत संभव है कि शतक और सप्ततिकाके कर्ता एक हो । __उक्त साम्यके आधार पर पण्डितजीकी उक्त सभावना अनुचित तो नही कही जा सकती । किंतु शतकको कर्मप्रकृतिकारकी कृति माना जाता है और कर्मप्रकृति तथा सित्तरीके कथनोमे मतभेद है । अत कर्मप्रकृतिकारकी कृति तो सित्तरी नही हो सकती । यदि शतक कर्मप्रकृतिकारकी कृति नहीं है जैसा कि सदेह प्रकट किया गया है तो शतक और सित्तरी एक व्यक्ति की भी कृति हो सकते है, क्योकि दोनोमें कोई मतभेद दृष्टिगोचर नही हुआ। किंतु इस सम्बन्धमें विशेष प्रमाणोके अभावमें कोई निर्णय कर सकना शक्य नहीं है। १. पृ० १०॥
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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