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________________ ३४४ ; जैनसाहित्यका इतिहास - - कहा जा सकता, क्योकि न तो पचसग्रहके ही कर्ताके सम्वन्धमें कुछ ज्ञात है मोर न कर्मस्तव, और सित्तरी के हो कर्ताका पता है । हाँ, शतकको चूर्णिकारने । शतक अथवा वन्धशतकका निर्देश मिलता है और वह शतक या बन्ध कृति, अवश्य बतलाया है और कर्मप्रकृति तथा उसकी चूर्णिमें भी शिवशर्मसूरिकी शतक वही माना जाता है जिसकी ९४ गाथाएँ पचसग्रहके शतक नामक चतुर्थ अधिकारमे सगृहीत है साथ ही कमप्रकृति के साथ शतक की तुलना करने पर वे दोनो एक ही आचार्यकी कृति नही प्रतीत होते और शतक एक सग्रह ग्रन्थ जैसा प्रतीत होता है । दोनो पक्षोके अनुकूल और प्रतिकूल वातोके होते हुए भी एक वातको नही भुलाया जा सकता कि पचसंग्रहके चतुर्थ और पचम अधिकारका नाम शतक और सप्ततिका है । जिस प्रकरण में सौ या उसके आसपास गाथा स ख्या हो उसे शतक और जिसमें सत्तर या उसके आस पास गाथा सख्या हो उसे सित्तरी कहा जाता है । किन्तु प स० के चतुर्थ और पचम अधिकारोकी गाथा स त्या पांच-पांच सौ से भी कुछ अधिक है । ऐसी स्थितिमे समान स ख्या होते हुए भी एक अधिकार का नाम शतक और दूसरेका नाम सित्तरी रखनेका कारण समझमें नही आता । उसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि चतुर्थ अधिकारकी मूल गाथामोका प्रमाण सौ के लगभग और पाचवें अधिकारको मूल गाथाओका परिमाण सत्तरके लगभग होनेसे उन अधिकारोको शतक और सित्तरी नाम दिया गया । किन्तु इससे तो यही प्रमाणित होता है कि उक्त दोनो अधिकारोके मूल शतक और सित्तरी नामक प्रकरण है अतः मूल विवाद इस बात पर रह जाता है कि वे दोनो प्रकरण भी उन पर भाष्य रचने वाले पचसग्रहकारको ही कृति है या किसी दूसरे की कृति है ? इस विवादके समाचानके लिये हमें उक्त प्रकरणोको हो देखना होगा । प० सं० के प्रथम द्वितीय और तृतीय अधिकारके आदिमें ग्रन्थकारने केवल एक गाथाके द्वारा मगलपूर्वक विपयवर्णनको प्रतिज्ञा करके प्रकृत विपयका प्रतिपादन प्रारंभ कर दिया है और उन अधिकारोके अन्तमें कोई उपसहार तक नही किया । किन्तु चौये अधिकारके आदिमें तीन गाथाएं मगलरूपमें है । प्रथम गाथामें श्रुतज्ञानमे पद कहने की प्रतिज्ञा को गई है और तीसरी गाथामें जो शतकको प्रथम गाथा है दृष्टिवादमे कुछ गाथाओ को कहने की प्रतिज्ञा की गई है। पहले अधिकारोका कथन दृष्टिवादके आधार पर नही किया गया और चौथेका कथन दृष्टिवादके आधार पर किया गया ऐसा भेद क्यो ? इम अधिकारके अन्तको तीन गायाओमें ग्रन्थनाने अपने कथनको कर्मप्रवादरूपी श्रुतसमुद्रका निस्यन्द कहा है और लिसा है मुन अत्पमतिने यह चन्ध विधान नक्षेपसे रचा, विशेष निपुण उसे पूरा करके कथन करें ।' अपनी कृतिके एक अवान्तर अधिकार के अन्त में कोई ग्रन्थकार ऐसी बात नहीं कहता । यही बात पत्रम अधिकारमें भी पाई जाती है । किन्तु उसके
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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