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________________ ३४६ : जैनसाहित्य का इतिहास पचगंग्रहकी स्थिति पर विचार करनेके लिए एफ बात भोर भी उल्लेखनीय है । और वह है उगमे पुनरुगत गाथागोया होना और उनकी गंख्या भी कम नहीं है । इग दृष्टिरो शतक नामक चौथा अधिकार उल्लेखनीय है जिराकी गाथाएं तोमरे और पानवे गधिकारमें पाई जाती हैं । इरा पुनरुक्तिका कारण है कि जो पथन चौधे में आया है यह तीसरे और पांचवेंमें भी आया है । और उसके आनेका कारण यह है कि कर्मस्तव और बन्धशतक तथा शतक और सित्तरीमें कुछ कथन समान है। कर्मस्तवकी गा० १३ आदिमे बन्धव्युच्छितिका कथन है और उधर शतककी गाथा ४६में वन्धच्युच्छित्तिका काथन है, उसको आधार बनाकर पंचसग्रहकारने तीसरे अधिकारको बन्धन्युच्छितिवाली गाथाएं चौथे अधिकार में भी लाकर रख दी है। इधर शतककी गा० ४२-४३ में कर्मोके बन्धस्थानीका कथन है । उसके भाज्यस्प में परसग्रहकारने बहुत सा कथन किया है। उधर सप्ततिका २४में भी यही कथन होनेसे पचसंग्रहकारने उनके व्याख्या रूपसे चौथे अधिकारकी गाथा पांचवे अधिकारमें लाकर रख दी है । इसी तरह दर्शनावरण कर्मके वन्धादिका कथन पांचवे अधिकार प्रारभमें भी किया है । और आगे भी किया है। इससे उसमें भी 'पुनरुक्तता' मा गई है। इससे प्रथम तो इस वातका समर्थन होता है कि कर्मस्तव, शतक और सित्तरी पचसग्रहकारकी कृति नही है किंतु उन्हें उन्होने अपनाकर उनपर अपने भाष्यकी रचना की है। यदि वे एक ही व्यक्तिकी कृति होते तो उनमें पिष्टपेषण न होता । दूसरे, उन्होने उन्हें पृथक्-पृथक् प्रकरणके रूपमें रचा होना चाहिए। इसीसे एक प्रकरणकी गाथाओको दूसरे प्रकरणमें रखते हुए उन्हें सकोच नही हुआ और इसीसे समग्न ग्रन्थमें न ग्रन्थका नाम मिलता है और न एक अखण्ड ग्रन्थके रूपमें ही उसकी स्थिति दृष्टिगोचर होती है। उन्होने स्वय अथवा पीछेसे किसीने उनको सम्बद्ध करके पचराग्रह नाम दे दिया है। जैसे सिद्धात ग्रन्थ षट्खण्डागमको भूतबलिने कोई सामूहिक नाम नही दिया और धवलाकार वीरसेनस्वामीने उसके खण्डोके नामसे ही उसका निर्देश किया और पीछेसे छै खण्ड होनेके कारण षट्खण्डागम नाम दे दिया गया। वैसे ही उक्त पांचो प्रकरण प्रारभमें भिन्न २ थे । पीछे उन्हें पचसग्रह नाम दे दिया गया जान पडता है । इसीसे वीरसेनस्वामीने 'जीवसमास' प्रकरणका ही निर्देश किया है, सामूहिक नाम पचराग्रहका निर्देश पूरा नहीं किया । उसपर से यह भी अनुमान किया जा सकता है कि वीरसेन्स्वामीके पश्चात् ही किसीने उसे पचसग्रह नाम दिया होगा।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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