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________________ ३३२ जैनसाहित्यका इतिहास किया है । यह कथन लेश्या मार्गणामें ही होना चाहिए था संस्कृत पं० स० में ऐसा ही किया गया है। लेश्याओ का कथन समाप्त होने के बाद सिद्धान्त की फुटकर विशेप वातोका सग्रह है-जिनमें बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि कहा-कहा उत्पन्न नही होता । कौन संयम किस किस गुणस्थानमें होता है ? फिर सात समुद्धातो का कथन है। केवलिसमुद्धात का कथन करते हुए एक गाथामें कहा है कि छै मास आयु शेष रहने पर जिन्हे केवलज्ञान होता है वे केवली नियमसे समुद्धात करते है । शेषके लिये कोई नियम नहीं है । यह गाथा इस प्रकार है-- छम्मासाउगसेसे उप्पन्न जेसि केवल णराण । ते णियमा समुग्धायं सेसेसु हवति भयणिज्जा ॥ २०० ।। यह गाथा धवलामें इस रूपमें उद्धृत है-- छम्मासाउवसेसे उप्पण्ण जस्स केवल णाणं । स समुग्धामो सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्घाए ।। (पट पु० १, पु० ३०३) भगवती आराधनामें यह गाथा इस रूपमें पाई जाती है-- उक्कस्सएण छम्मासाउगसेसम्मि केवली जादा । बच्चति समुग्धाय सेसा भज्जा समुग्धादे ॥ २१०९ ॥ गाथा के इन रूपो को देखते हुए यह कहना तो शक्य नही है कि धवलाकारने उक्त गाथा उसी जोव समास से उद्धत की है या भ० आराधना से । किन्तु इसी सम्बन्ध में उन्होने एक गाथा और उद्धत की है जो भ० आराधनाकी २११० वा गाथा है यद्यपि उसमें भी पाठ भेद है। अत. सभव है उन्होने उक्त दाना गाथा भ० आराधना से ही ली हो। किन्तु वीरसेन स्वामी ने इन दोनो गाथाओ को आगम नही माना है। जब कि जीव समास से उद्धत गाथा का आर्ष कहकर उल्लेख किया है और तत्वार्थ सूत्र से भी उसे प्रथम स्थान दिया है । वह उद्धरण इस प्रकार है-- 'के ते एकेन्द्रिया ? पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः । एतेषा स्पर्शनमेकमेवे १ 'जेसिं आउ समाइ णामा गोदाणि वेयणीय च। ते अकय समुग्धाया वज्जतिपरे समुग्घाए । जेसि आउसमाई णामगोदाइ वेदणीय च । ते अकद समुग्धादा जिणा उवणमसति सलेमि ॥२११०॥ २. एतयोर्गाथयोरागमत्वेन निर्णयाभावात् । भावेवास्तु गाथयोरेवोपादानम् । -पट. स, पु. १, पृ. ३०४
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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