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________________ अन्य कर्मसाहित्य ३१५ • पूर्व चूर्णिकारोने भी उसका व्याख्यान नही किया है इसीलिए वह प्रक्षेप-गाथा प्रतीत होती है और सुगम भी है ।' फिर भी टीकाकारने गाथाके उत्तराद्ध का शब्दार्थ कर दिया है । गाथामें कहा है- 'अनुत्तर पराक्रमी अरहन्त भगवान्को नमस्कार करके बन्धशतकमें निबद्ध इस सग्रहको कहूगा ।' टीकाकारने गाथा के उत्तरार्द्धका अर्थ इस प्रकार किया है -- 'कर्मप्रकृति प्राभूतसे उद्धृत करके इस बन्धशतक नामके प्रकरणमें आरोपित इस सग्रहको कहूगा ।' सो गाथाए होनेके कारण इसे शतक कहा जाता है और चूंकि इसमें बन्धका ही विस्तारसे कथन किया जायेगा इसीलिए इसे बन्धप्रधान शतक बन्ध - शतक कहा है ।' इस गाथामें मगलाचरणके साथ बन्धशतक नाम भी आ जाता है । इसे मूल ग्रन्थसे अलग कर देनेपर ग्रन्थ बिना मगलका और बिना नामका रह जाता है । बन्धशतकके रचयिता की दूसरी अमरकृति कर्मप्रकृति' के आरम्भमें भी इसी प्रकार गाथाके पूर्वार्द्धसे मगल करके उत्तरार्धसे उसके प्रतिपाद्य विषयका सूचन किया गया है । अत उक्त गाथाकी स्थिति विचारणीय है। उससे शतककी स्थितिपर प्रकाश पडता है । बन्धशतक सग्रहात्मक होनेसे तथा प्रथम कृति होनेसे कर्मप्रकृति जैसी प्रोढ कृतिकी समकक्षता नही कर सकता और इसीसे उसके सम्बन्ध में ऐसा सन्देह होना संभव है कि कर्मप्रकृतिमें निर्दिष्ट बन्धशतक प्रस्तुत बन्धशतक नही है । किन्तु उसकी पुष्टिमें प्रबल प्रमाणोका अभाव है । शतक चूर्णि - प्रस्तुत शतक पर एक चूर्णि उपलब्ध है जो मुद्रित हो चुकी है । यह लघु चूर्णि है इसके सिवाय एक बृहत् चूर्णि भी थी । उसका उल्लेख हेमचद्रने तो अपनी शतक टीकामें किया ही है, किन्तु मलयगिरि, देवेन्द्रसूरि आदिने भी अपनी टीकाओमें किया है । इसीसे टीकाकार हेमचन्द्रने प्रस्तुत मुद्रित चूर्णिको लघुचूर्णि कहा है । वृहच्चूर्णि अभी तक अनुपलब्ध है । लघुचूर्णिमें बृहच्चूर्णिका कोई उल्लेख देखनेमें नही आया । इससे निश्चयपूर्वक यह नही कहा जा सकता कि दोनोमेंसे 11211 विस्तरणाभिधास्यते अतो बन्धप्रधान शतको बन्धशतकस्तस्मिन्नित्यर्थं शतक टी०- 1 १ 'सिद्ध सिद्ध त्यसुय वदिय णिधोय सव्वकम्ममल । कम्मट्ठगस्म करणठगु दय सताणि वोच्छामि ॥११- क० प्र० । २ ' उक्त च बृहच्चूर्णावस्मिन्न व विचारे' ( पृ ११ ) । लिखितमिति व स्वमनीपिंका भावनीयेति' - ( पृ २८ ) श०रि० ३. 'उक्तं च शतकगृहच्चूण ( पृ० १९, ३८,, ७८, -- पञ्चस. टी., पृ० १४७, १७३ । ४ ' शतकवृहच्चूर्णावप्युक्तम् - शतक टी० पृ० १२० । 'एत्तच्च बृहच्चूर्णिमनुसृत्य
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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