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________________ ३१४ ' जेनसाहित्यका इतिहास हैं उन्हें कहूँगा । जिन गुणस्थानोगे जिन-जिन गारणोग कबध होता है, उन्हें काहगा। वन्ध उदय और उदीरणाकी विधिको तथा उनके गगोगो कहगा। तया सक्षेपमें वधा भेदोका पाथन करगा '॥ अन्तगें गाथा' १०४में कहा है कि"विन्दुक्षेप FT गे परा बन्न-गमागका काथन किया । यह गर्गप्रवाद रूपी श्रुतसमुद्रका निस्यन्द माग है ॥' गाथा' १०५में कहा है-'मुक्त भरपज्ञानी गन्दमतिने वन्धविधान रागागको रना, बन्ध-गोभ शाता गुगल पुगप उगे पूग करके कहें ।।' ग अन्तिम गायाफे अनुगार तो यदि ग्रन्थगो कोई नाम दिया जा सकता है तो वह बन्धविधान समाग अगवा बन्धगमाम है । उमी परमे अन्यकारने उसे अपनी दूगरी कृति मगप्रतिमें वन्यगतक नाम दिया जान पडता है। उसके सम्बन्धमें और कुछ लिगनेरी पूर्व ग्रन्थका विषय-परिचय सक्षेपमें दिया जाता है। इस विषय परिचयरो प्रकट होता है प्रस्तुत शतक अन्य एक सग्रह-नन्य जैसा है । उराको प्रथम गाथाके अनुसार भी उग रचयिताने दण्टिवादसे कुछ गाथाओका राम्भवतया सकलन किया है । इगीसे इसमें विविध विषयो का कथन पाया जाता है । इगका क्रमवद्ध प्रकरण बन्धरामास है, वही इसका मुख्य प्रतिपाद्य है। किन्तु उसमें भी परिपूर्णता नहीं है । गाथा ५२-५३ में कर्मोको उत्कृष्ट स्थिति बतला कर जघन्य स्थितिको करने की प्रतिज्ञा की है किन्तु जघन्य स्थिति नही बतलाई । शतकचूर्णिमें एक गाथा दी है जिसमें जघन्य स्थितिका कथन है और चूर्णिकार ने उसकी व्याख्या भी की है किंतु उस गाथाको मूलमें सम्मिलित नहीं किया। हेमचंद्र की टीका चूणिकी उस टीकको चर्चा तक नही है। प्रतिज्ञा करके भी कथन न करना कर्मप्रकृतिकार जैसे आचार्यके लिए उपयुक्त नहीं है। अत बन्धशतककी गाथाए सगृहीत जान पडती है । इसका समर्थन ग्रन्यके प्रारम्भको एक गाथासे होता है जो दोनो संस्करणोमें यथास्थान मुद्रित है किन्तु उसपर चूणिं नही है और इसी लिए टीकाकारने भी उसे मूलमें सम्मिलित नही किया किन्तु अपनी टीकामें उसे उद्धृत करते हुए लिखा है-' यह गाथा ग्रन्थके आदिमें पायी जाती है किंतु १ 'एसो वधसमासो विदु खेवेण वन्निओ कोइ । कम्मपवायसुयसागरस्स णिस्सदमेत्ताओ ॥१०४||- श.। २,-'बधविहाणसमासो रइओ अप्प सुयमद मइणा उ । त वधमोक्ख पिउणा पूरेऊण परिकहेतु ॥१०५॥-श०। , 'अरहते भगवते, अणुत्तर परक्कमे पणमिऊरण । बधसमये निवद्ध सग्रहणियमो पवक खामि ॥१॥-(इतीय) गाथा आदौ दृश्यते, सा च पूर्वचूर्णिकारैरल्याख्यातत्वात् प्रक्षेपगाथेति लक्ष्यते, सुगमा च । नवरं कर्मप्रकृतिप्राभृताद्धृत्यसग्रहमेनमन्तस्तत्त्वगृहीत प्रवक्ष्यामि । कथभूतम् ? इत्याह-निबद्धम्' आरोपितम्, क्व ? इत्याह 'बन्धशतके' प्रस्तुतप्रकरणे । इद हि शतगाथानिष्पन्नत्वाचच्छतकोऽभिधीयते । बन्ध एव चात्र
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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