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________________ २१८ : जेनहिलका नि गति सज्ञान, भुताशाद, दिनकर विध गदर कोई दो गाय ११ गित्तरी wgray महा भी की माता है, नगमे मानिने गए उपयोग मार्गाने जमिनका लगनानुयायी । पापना में जवानियां भी है। शुक फ, धादि को माता wwwy विदारी त्या वर्गात नामक व प्रागोन ग्रन्यदताम्यर है । भी जेन ६ को मेहतालामा हूँ । आत्मानन्द गभा भानगये कामप्रति हुआ है। किन्तु प्रस्तावनाएँ सुनिधी पुण्यप्रियजने हमे भागने हुए प्रकारकाम होने का कारण भी बताया है भोपा नहीं वितन् गतविका प्रकरण की प्राचीन ताम्रपतीय प्रतियोंक अन्त चन्द्र महत्तर के नामको लिये हुए एक गाया दम प्रहार निती हूं गाहग्ण गरीए नंदमहतरमानुगागे । टीगाइ नियमियाण गूगुना होइ गवई उ ॥ टीकाकारने इनका अर्थ इस प्रकार किया --नन्द्रमहार भावार्य मतका अनुसरण करनेवाली ७० गाथाओंमें यह ग्रंथ रचा गया है। उसमें टोकाकारीके द्वारा रचित नई गाथाओके मिलनेमे गाया सय्या नवानी हो गई है। इसके विवेचनमें लिया है कि इस सप्ततिका के कर्ता चन्द्रमहत्तर आचार्यने तो पहले सत्तर हो गाथाएँ रचो थी, आदि । उक्त गायाके इम भमपूर्ण अर्थके कारण हो गप्ततिकाको चन्द्रपि महत्तरकृत मान लिया गया जान पडता है । किन्तु गाथाका अर्थ है - 'चन्द्रपिं महत्तरके मतका अनुसरण करनेवाली टीकाके आधारसे सत्तरिकी गाथा ८९ हो गई ।' इसमें १. 'अन्ने भणति - ओहिदसणसहिया छ उपभोगा- रा० नू पृ० ११ । ग अवधिदर्शन तत्कुन श्चिदभिप्रायाद्विशिष्टश्रुतविदो नेच्छन्ति ता सम्यगवगच्छाम । अथ सूने मियादृष्टयादीनामवधिदर्शन प्रतिपाणते । यत उक्त प्रशनी - 1 - पास. मलयटीका भा.१, पृ०१९ |
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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