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________________ जयधवला-टीका २८७ 'एत्य चोदगो भणादि' 'ण एस दोसो' जैसे वाक्यो के द्वारा पजिकाकारने आवश्यकतानुसार यत्र-तत्र शका-समाधान भी किया है । और 'केइ एव भणति' तत्य एक्कुवदेसेण' 'अण्णेक्कुवदेसेण' जैसे पदो और वाक्योंके द्वारा विवक्षित चर्चाओके सम्बन्धमें विभिन्न आचार्यों के मत दिये है। तथा उन मतोमें कौन ठीक है ? इसका उत्तर भी धवलाकारकी तरह ही दिया है-'उपदेश प्राप्त करके दोनोमें से एकका निर्णय कर लेना चाहिए। एक जगह लिखा है-'इन दोनो उपदेशोमें कैसे वैशिष्ट्य नही है ? नही जानता, उसे श्रुतकेवली जानते है । किन्तु मुझे बुद्धिसे ऐसा प्रतिभासित होता है । एक जगह लिखा है-'ये परस्परमें विरोधी दो प्रकारका स्वामित्व क्यों कहा ? अभिप्रायान्तर बतलानेके लिए कहा है और फिर उस अभिप्रायान्तरको स्पष्ट भी किया है। एक जगह लिखा है कि-'भोगभूमिमें कदलीघात होता है एक मतसे ऐसा है । और भोगभूमिमें आयुका घात नही होता ऐसा कहनेवाले आचार्योंके मतसे पूर्वप्रकार है।' यहाँ भोगभूमिमें कदली-घात मरणवाला हमारे देखने में अन्यत्र नही आया सत्कर्मके उदयानियोगद्वारमें प्रदेशोदयके स्वामित्वका कथन करते हुए धवलाकारने लिखा है-'उत्कृष्ट स्वामित्वमें पांचो सहननोका उत्कृष्ट प्रदेशोदय किसके होता है ? सयमासयम-गुणश्रेणि, सयम-गुणश्रोणि और अनन्तानुबन्धी विसयोजन गुणश्रेणि, इन तीनोको एकत्र करके स्थित सयतके जब पूर्वोक्त तीनो गुणश्रेणि शीपं उदयको प्राप्त होते है तब पांचो सहननोका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है।' १ 'तदो उवदेस लद्ध ण दोण्हमेक्कदर णिण्णवो कायव्वो,'–स. प, पृ० ४ । २ एदेसि दोण्ह मुवदेसेसु कध मविसिट्ठमिदि चेण्णेव जाणिज्जदे, त सुदकेवली जाणिज्जदि । किंतु पढमतर परूवणाए विदियतर परूवण अत्यविवरणमिदि मम मइणा पडिभा सदि।-पृ० २४। ३ किमढ़ दुप्पयार सामित्तमण्णोण विरोध परूविद ? अभिप्पायतरपयासणठ्ठ परूवि दत्तादो'-पृ० ८०। _ 'भोगभूमीए कदली घातमथि त्ति अभिप्पायेण । त चेद । पुणो भोग भूमीए आउगस्स घाद पत्थि त्ति भणताइरियाण अभिप्पाण्ण पुव्व ।'-पृ० ७८ । ५. 'पचण्ह सहडणाण उक्कस्स पदेसोदयो कस्स? सजमासजम सजम अणताणुबधि वि सयोजण गुणसेढीओ तिण्णि वि एगठ्ठ कादूण टिठदसजदस्स जाहे पुन्वत गुणसेढि सीसयाणि तिण्णि वि उदयभागदाणि ताहे पचण्ह सहडणाण उक्कस्सो पदेसोदओ।'पृ० ३०१।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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