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________________ २८८ . जैनसाहित्यका इतिहास इसकी पंजिकामें लिखा है-'इससे पांचो सहननो के उदयवाले जीवोंके दर्शनमोहको क्षपण करनेकी शक्ति नहीं है, ऐसा कथित होता है । तथा वज्रनाराच और नाराच सहननके उदयवाले जीवोको भी उपशमश्रेणि चढना सभव नहीं है यह भी इसमे ज्ञापित कर दिया। यदि ऐसा है तो पूर्वापर विरोध क्यो नही आता? नही आता, यह आचार्यों के अभिप्रायोका सूचक होनेसे ग्रन्थान्तर ( मतान्तर ) है। वह अभिप्राय' कहते है इनका उदय पुद्गल-विपाकी है। वे पुद्गल जीवोके रागद्वेषोके उत्पादनमें निमित्तभूत शक्तिको उत्पन्न करते हैं। जैसे वाह्य पुद्गलोके........वैसे उपगम श्रेणीमें रागद्वेषको उत्पन्न करानेमें समर्थ नही है । अत' उनके फलके अभावको अपेक्षासे उपशमणिमें उनका उदय नहीं है, यह सूचित किया। अन्य अन्योंमें प्रदेश-निर्जरा मात्रकी विवक्षा करके उदय कहा है । अथवा वज्रनाराच और नाराच संहननवालोंके उपशमणि चढनेकी शक्ति नहीं है, ऐसा अभिप्राय कहना चाहिये।' मागे एक जगह पुन इमी चातको दूसरे प्रसगसे इस प्रकार लिखा है'अन्तिम पांच सहनन असंन्यात गुने हैं। दो प्रकारके सयम गुणणि शार्प और उनसे गुणित अनन्तानुवन्धी विसंयोजन गुणोणिशीर्ष, इन तीनोको एकत्र करके नामकर्म सम्वन्धी अट्ठाईस अथवा तीस प्रकृतिक स्थानसे भाग देनेपर होता है । दर्शनमोहक्षपक-गुणधेणिका ग्रहण क्यो नही किया ? इन सहननोंक उदयसाहत जीवोके दर्शनमोहको क्षपण करनेकी शक्ति नही है। इस अभिप्रायसे उसका ग्रहण नही किया। दूसरे और तीसरे सहननवालाकी उपशान्त-कषाय गुण श्रेणिका ग्रहण क्यो नही किया जिनके दर्शन मोहको क्षपण करनेकी शान अभाव है उनके उपशम श्रेणिपर चढनेकी शक्तिके होनेका विरोध है इस आभप्रायसे नही किया। यदि ऐसा है तो मनन्तर ही बीती उदीरणास्थान प्रा विरोध • क्यो नही माता? विरोध तो आता है किन्तु ग्रन्थान्तरका आमा - 'एदेण पचण्ट संरडणाणमदरल्लाण पि उसमविचटण सभव णत्यिति जाणाविद । जाद एवं [तो पुवावरविरोही (हो) किं भवे? वा भवे, गंधातर माइरियाणसामपायाण सूचयत्तादो । तं फथ ? अभिप्पाय उच्चदे-देति मुदयो पोग्गल विवाग करोदि । ते पोनला जीवाण रागदोतागमप्पयागणिमित सत्तिमुप्पादयति । जहावार पोग्गलाणं सत्ते वियप्पो (1) हा उपसमतेढ़ ए राग-दोसमुप्पाएदु, ज्जदि ति । तदो तप्फलाम (भा) वावक्ताए उदओ उक्सम सैदिए णात्य दरगत पदेसणिज्जरामत्त विवक्लिय भणिद। महवा उसमताद चढतता त्यित्ति पदनभिप्पायमिद म (भा) विदम्ब ।' -सं०प०, पृ०७६ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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