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________________ २८६ : जेनसाहित्यका इतिहास हारोगे वन्य तथा नगनीय अनुयोगद्वार वनागली, कम्प-विधान नामक अनुयोगहर महानयमे और बम्पक-अनुयोगवा गुद्दाबन्धमे विस्तार प्रपण अनुगोगारीका कपन गाम किया । प किया। इनके गिना नया फिर भी उसके अत्यन्त गम्भीर होने इस प्रकार परिकारका पूरे हो महाप्रकृति के नोोग अनुगोगद्वारों में किसी अनुयोगवाया पचन किया गया यह बताते हुए, अपनी पंजिकाका आमा किया है जो इस प्रकार है उनमेने, प्रथम अनुयोगवहार ना कथन सुगम है । किन्तु उनका निक्षेप छ प्रकारने कहा है उनमे में तीग पनि कथन करने के लिए आचार्यने ऐसा कहा है । उगका अर्थ कहते है । इन तहगत व्यायामको उत्पानिया के साथ उद्धृत करके व्याख्यान किया है। धन नरह तत्कर्मके व्याग नाक्यको उत्थानका गाय उद्घृत करके पारगान किया है । सत्कर्मके उपक्रम अनुयोग वीरमेन स्वामीने लिगा है कि इन नारो ही वन्यनोपक्रमो का अर्थ जैगा संतकम्मा कहा है ना ही कहना चाहिये । न मे आगत गतम् पाहूपर प्रकाश टाउने हुए पजिकामें लिगा है - संतकम्म पाकुड कोन गा है ? महाकर्मप्रकृति प्राभृतके नोनोस मनुयोगद्वारोमेरो दूसरा अधिकार वेदना है। उनके सोलह अनुयोगद्वारोमें से चौथे, छठे और गातवें अनुयोगद्वार द्रव्य-विधान, काल-विधान और भाव-विधान है । तथा महाकर्मप्रकृति प्राभृतका पाच अधिकार प्रकृति नामक है। उसमें चार अनुयोग द्वार है उसमें गाठो कर्मों के प्रकृति-सत्य, स्थिति गत्व, अनुभाग सत्व और प्रदेश सत्वका कथन करके उत्तर प्रकृति सत्य, उत्तर स्थिति सत्व, उत्तर अनुभाग-सत्व और उत्तर प्रदेश- सत्वको सूचित किया है । इनको संत कम्मपाहुड कहते हैं । तथा मोहनीयको सत्ताका कथन करनेवाला कसायपाहुड भी हैं । इस तरह धवला में निर्दिष्ट सतकम्म- पाहुडका भी सुलासा पंजिकाकारने किया है । सत कम्मपालुट नाम कथ (द) मं ? महाकम्मपयटिपाहुडरस चडवीसमणियो। द्वारेसु विदियाहियारो वेदणा णाम । तस्स सोलम अणियोगद्वारेसु चउत्य-हट्ठम सत्तमाणियोगद्वाराणि दव्वकाल भावविहाण णामधेयाणि । पुणो तहा महाकम्म पयडी- पाहुडस्सपचमो पयटी णामहियारो । तत्थ चत्तारि अणियोगद्वाराणि अट्ठ कम्माण पयडि ट्ठिदि; अणुभागप्पदेस सत्ताणि परूविय सुनिदुत्तर पयडिं ठिदि-अणुभागप्पदेससत्ताद । एवाणि सत्त ( सत) कम्मपाहु णाम । मोहनीय पडुच्च कसाय पाहुड पि होदि । स० पं०, पृ० १८ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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