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________________ जयधवला-टीका : २८५ कहा है उससे प्रकट होता है कि उनका यह पजिका रूप विवरण दुर्-अवगाहित पदार्थोके विस्तार को लिये हुए है। और उससे यह भी प्रकट होती है कि पंजिका काम पूरे सत्कर्म पर उसे रचनेके विचारसे ही आरम्भ किया था। वह अपने इस महान कार्यको पूर्ण करनेमें सफल हुए अथवा मध्यमें ही किसी देवी विघ्नके कारण उनका यह कार्य अधूरा ही रह गया, यह भी निर्णयात्मक रुपसे कह सकना संभव नहीं है । किन्तु इतना निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि यदि यह पजिका पूर्ण उपलब्ध हो सके तो वह भी एक महत्वको कृति मानी जायेगी। वीरसेनस्वामीके अनुसार वृत्तिसूत्रोके विषम पदोको खोलनेवाले विवरणको पजिका कहते है। पजिका रूप विवरणमें पूरे ग्रन्थोका व्याख्यान नही होता किन्तु उसके कठिन और गम्भीर स्थल होते है, उनका खुलासा होता है। तदनुसार पजिकाकारने वीरसेन स्वामी कृत सत्कर्मके वाक्योको ले कर उनका खुलासा किया है । वह खुलासा केवल शब्दार्थरूपमें अथवा पदच्छेद रूपमें नही किया है किन्तु वाक्यसे सम्बद्ध विषयके सम्बन्धमें विवेचन भी किया है और उसके अवलोकनसे प्रकट होता है कि पजिकाकार अपने विपयके अधिकारी विद्वान थे और उन्हें एतत्सम्बद्ध प्राप्त विपयका अच्छा अनुगम था। __उनकी यह पजिका घवलाकी तरह ही प्राकृत गद्य में है। और उसीकी शैलीको लिये हुए है यथा स्थान मतान्तरोका भी निर्देश है और मतान्तर तो मौलिक प्रतीत होते है। पजिकाको आरम्भ करते हुए लिखा है महाकर्मप्रकृति-प्राभृतके कृति, वेदना, आदि चौबीस अनुयोगद्वारोमें से कृति और वेदना अधिकारका वेदना-खण्डमें, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन अनुयोग १ 'वित्तिसुत विसम पय माजियाए पजिय ववण्सादो।-क० पा०४० १४।। २ महाकम्म पयडिपाहुडस्स कदि-येदणामओ (इ) चउन्वीस मणियोगद्दारेसु तत्थ कदि वेदणात्ति जाणि आणियोददाराणि वेदणाखडम्मि, पुणो प [पस्स-कम्म-पयडि-वधणत्ति] चत्तारि अणिओगरेसु तत्थवधावधणिज्जणामाणि योगेहिंसह वग्गणाखडम्मि, पुणो वधविधाण णामाणियोगद्दारो महाबधम्मि, पुणो वधगाणियोगो खुद्दावधम्मि च सप्पवचेण परू विदाणि । पुणो तेहितोसेसहारसाणियोगद्दाराणि सतकम्मे सव्वाणि परू वि दाणि । तोवि तस्साइ गभारत्तादो अत्थ विसम पदाणमत्थे थोरत्ययेणपजियसरूवेण मणि स्सामो। त जहातत्थ पढमाणिोगद्दारस्स णिबधण [स्म] परूवणा सुगमा। णवरि तस्स णिक्खेओ छन्विह सरूवेण परूविदो । तत्य तदियस्सदव्वणिक्खेवस्स सरूव परूवण? आईरियो एवमाह--पटख०, पु. १५, स०प० पृ०१। - - - -
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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