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________________ २६८ : जैनसाहित्यका इतिहास द्रव्य के अगुलघुगुण प्राप्त होते है । पुन धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके अगुरुलघुगुणोका उत्तरोत्तर वर्ग गरने पर अनन्त लाा प्रमाण वर्गस्थान आगे जाकर एक जीवका गगुएलघु गुण प्राप्त होता है। पुन' एक जीव अगुरुलघुगुणका उत्तरोत्तर वर्ग करनेवर अनन्तलोकमान वर्गस्यान आगे जाकर सूक्ष्मनिगोदिया लटध्यपर्याप्तकका लन्ध्यक्षर श्रुतज्ञान होता है।' 'राखेज्जायलिगाहि एगो उस्सासो, सत्तु स्तारोहि, एगो थोवो होदित्ति परियम्मवमणादो।' -पु० १३, पृ० २९९ । 'सख्यात आवलियोका एक उच्चास होता और सात उछ्वाराका एक स्तोक होता है, ऐसा परिकर्मका वचन है । 'अससेजमेत फुदो णव्वद ? परियम्मादो ।' त जहा ...... परियम्मे भणिदं । यहां गुणकारका प्रमाण गराण्यात लोक है, यह ( पु० १४, पृ० ३७४-७५ 1) किस प्रगाणसे ज.ना जाता है ? परिकर्मी जाना जाता है। घवलाटीकामें पाये जानेवाले परिकके उक्त उद्धरणोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि परिकर्मका प्रधान प्रतिपाद्य विषय जैन गणित है, इसीसे उसके प्राय सभी उद्धरण गणनासे सम्बद्ध पाये जाते है। सम्भवतया गणनाके प्रसगसे ही उसमें ज्ञानोकी भी चर्चा आयी है, क्योकि श्रुतजान और उसके एक भेद लब्ध्यक्षर श्रुत ज्ञानके प्रमाणका भी उसमें वर्णन है । तथा वह प्राकृत गद्य रूपमें रचा गया था किन्तु 'अपदेसं गेव इदिए गेज्म' उद्धरणसे यह भी व्यक्त होता है कि उसमें गाथा भी होनी चाहिये । और द्रन्योका वर्णन भी होना चाहिए। जैसा कि हम लिख आये है कि परिकमक अधिकतर उद्धरण जीवट्ठाणके द्रव्य प्रमाणानुगम अनुयोगद्वारकी धवला टीकाम है । द्रव्य प्रमाणमें गुण स्थानो और मार्गणास्थानोमें जीवोकी सख्या बतलायी गयी है। उद्धरणोंसे प्रकट होता है कि उसमें भी गति आदिकी अपेक्षा जीवोकी संख्याका प्रतिपादन होना चाहिये। किन्तु 'परिकर्म' पट्खण्डागमकी व्याख्या है, इसका कोई निर्देश धवलाकारने नहीं किया है । वल्कि एक दो स्थानो पर 'परिकर्मसूत्र' करके उसका निर्देश किया है, जिससे ऐसा आभास आता है कि वह कोई स्वतत्र ग्रन्थ था। किन्तु कुछ निर्देश ऐसे भी मिलते है जिनसे विपरीत भावना व्यक्त होती है। वेदना खण्डके वेदना भाव विधान नामक अधिकार के सूत्र नम्बर २०८ की व्याख्या दृष्टव्य है। सूत्रमे कहा गया है कि 'एक कम जघन्य असंख्यातकी वृद्धिसे सख्यात भाग वृद्धि होती है।' इसकी धवलामें लिखा है कि एक कम जघन्य असख्यात कहनेसे उत्कृष्ट सख्यातका ग्रहण करना चाहिये। इसपर शंका की गयी कि सीधेसे उत्कृष्ट सख्यात न कहकर और सूत्रको बडा करके 'एक कम जघन्य
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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