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________________ जयधवला-टीका - २६७ यदि श्रुतज्ञानका विषय अनन्त सख्या है तो चौदह पूर्वीका विषय उकृष्ट संख्यात है । ऐसा जो परिकर्ममें कहा है, वह कैसे घटित होगा। 'एदे जोगाविभागपडिच्छेदा च परियम्मे वग्गसमुद्विदात्ति परूविदा'-पु. १०, पृ० ४८३ । परिकर्ममें इन योगोके अविभागी प्रतिच्छेदोंको वर्गसमुत्थित वतलाया है। 'अपदेस णेव इदिए गेज्झ इदि परमाणूण णिखयवत्त परियम्मे वृत्तमिदि णासकणिज्ज पदेसो णाम् परमाणु सो जम्हि परमाणुम्हि समवेद भावेणणत्थि सो परमाणुअयदे समोत्ति परियम्मे वुत्तो । तेण ण णिखयवत्त तत्तो गम्मदे ।'-पु. १३ पृ०१८ । 'परमाणु अप्रदेशी होता है और उसका इन्द्रियो द्वारा ग्रहण नही होता' इसप्रकार परमाणुमोका निरवयनपना परिकर्ममें कहा है ।' ऐसी आशका नही करना चाहिये, क्योकि प्रदेशका अर्थ परमाणु है । वह जिस परमाणुमें समवेत भावसे नही है वह परमाणु अप्रदेशी है ऐसा परिकर्ममें कहा है। अत परमाणु निर्अवयव है यह बात परिकमसे नही जानी जाती।' सव्वजीवरासिदो लद्धिमक्खरमणतगुणमिदि कुदो णन्वदे ? परियम्मादो । त जहा-सव्वजीवरासी वागीज्ज्माणा अणत लोगमेज्ञवग्गणट्ठाणाणि उवरि गतूण सन्वपोग्गलदव्य पावदि । पुणो सन्वपोग्गालदव्व वग्गिज्जमाण वाग्गिज्जमाण अणत लोगमैत्तवग्गणट्ठाणाणि उवरि गतूण सव्वकाल पावदि । पुणो सम्वकाला वग्गिज्जमाणा वाग्गिज्जमाणा अणतलोगमेत्तवग्गणट्ठाणाणि उवरि गतूण सव्वागाससेदि पावदि । पुणो सन्वागाससेढी वाग्ज्जिमाणा वग्गिज्जमाणा अणतलोगमेत्त वग्गणट्ठाणाणि उवरि गतूण धम्मात्थिय अधम्मत्थियदन्वाणमगुरुअलहुअगुण पावदि । पुणो धम्मात्थिय-अधम्मत्थियअगुरुअलहुअगुणो वग्गिज्जमाणो वग्गिज्जमाणो अणतलोकामेत्तवग्गणढाणाणि उवरि गतूण एगजीवस्स अगुरुअलहुअगुण पावदि । पुणो एगजीवस्स अगुरुअलहुअगुणो वग्गिज्जमाणो वग्गिज्जमाणोअणत लोगमेत्तवग्गणट्ठाणाणि उवरि गतूण सुहुमणिगोद अपज्जत्तयस्स लद्धिक्खर पावदित्ति परियम्मे भणिदा' -पु० १३, पृ० २६२-६३ ।। _ 'सव जीव राशिसे लब्ध्यक्षर ज्ञान अनन्तगुणा है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? परिकर्मसे जाना जाता है। परिकर्ममें कहा है-'सव जीव राशिका उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोक प्रमाण वर्गस्थान आगे जाकर सर्व पुद्गलद्रव्योंका प्रमाण प्राप्त होता । पुन सर्व पुद्गल द्रव्यके प्रमाणका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सर्व काल का प्रमाण आता है। पुन सर्वकालके प्रमाणका वर्ग करते-करते अनन्तलोक प्रमाण वर्ग स्थान आगे जाकर समस्त आकाश श्रेणी प्राप्त होती है । पुन सर्व आकाश श्रेणीका वर्ग करते-करते अनन्तलोक प्रमाण वर्ग स्थान जानेपर आगे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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