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________________ जयधवला-टीका · २६९ असख्यात' ऐसा क्यो कहा ? तो उत्तर दिया गया-'उत्कृष्ट सख्यातके प्रमाणके साथ सख्यात भाग वृद्धिका प्रमाण बतलानेके लिए वैसा कहा गया है । इससे आगे धवलाकरने लिखा है 'परिकम्मादो उक्कस्ससखेज्जयस्स पमाण मवगदमिदि ण पञ्चवट्ठाण कादु जुत्त तस्स सुत्तत्ता भावादो। एदस्स णिस्सेस्स आइरियाणुग्गहणेण पद वि णिगयस्स एदम्हादो पुत्तविरोहादो वा ण तदो उक्कस्ससखेज्जयस्स पमाण सिद्धी ।' -पु० १२, पृ० ५४। 'यदि कहा जाये कि उत्कृष्ट सख्यातका प्रमाण परिकर्मसे ज्ञात है तो ऐसा प्रत्यवस्थान करना उचित नहीं है क्योकि उसमें सूत्र रूपताका अभाव है । अथवा आचार्यके अनुग्रहसे पदरूपसे निकले हुए इस समस्त परिकर्मके चूंकि इससे पृथक् होनेका विरोध है इसलिए भी इससे उत्कृष्ट सख्यातका प्रमाण सिद्ध नही होता।' इस कथनमें प्रथम तो परिकर्मको सूत्र नही बतलाया है, दूसरे उसे इससे (षट्खण्डागम) भिन्न होनेका विरोध किया है। किन्तु परिकर्म इससे भिन्न क्यो नही है उक्त कथनसे स्पष्ट नहीं हो पाता । 'आचार्यके अनुग्रहसे पदरूप निकले हुए' इस शब्दार्थका भाव स्पष्ट नहीं होता । वे कौन आचार्य थे जिनके अनुग्रहसे परिकम की निष्पत्ति हुई, फिर 'पद विनिर्गत' शब्दसे क्या अभिप्राय धवलाकारको इष्ट है, सो सब अस्पष्ट ही रह जाता है । किन्तु फिर भी इतना तो स्पष्ट होता है कि परि कर्मका पट्खण्डागम सूत्रके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । अन्यथा सूत्र २०८की व्याख्या में यह क्यो कहा जाता कि उत्कृष्ट सख्यातका प्रमाण तो परिकर्मसे अवगत है तब यहां उत्कृष्ट सख्यात न कहकर 'एक कम जघन्य असख्यात' क्यो कहा । और क्यो उसके इससे भिन्न होनेका विरोध किया। इसी तरहकी चर्चा जीवट्ठाणके द्रव्य प्रमाणानुगम अनुयोग द्वारके सूत्र ५२ की धवलामें भी है । सूत्रमें क्षेत्रकी अपेक्षा लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योका प्रमाण जगत श्रेणीके असख्यातवें भाग बतलाकर यह भी बतला दिया है कि 'जगश्रेणीके असख्यातवें भागरूप श्रेणी असख्यात करोड योजन प्रमाण होती है।' धवलामें इस पर यह शकाकी गयी है इसके कहनेकी क्या आवश्यकता थी? इसका उत्तर दिया गया कि इस सूत्रसे इस बातका ज्ञान नही हो सकता था कि जगश्रेणिके असख्यातवें भागरूप श्रेणीका प्रमाण असख्यात करोड योजन है। तो किर शका की गयी कि परिकर्मसे इस बातका ज्ञान हो जाता है तब फिर सूत्र में ऐसा कहनेकी क्या आवश्यकता है तो उत्तर दिया गया कि इस सूत्रके बलसे परिकमकी प्रवृत्ति हुई है।' परिकर्म षट्खण्डागम सूत्रोका व्याख्यान ग्रन्थ है, उक्त दोनो उद्धरणोसे बराबर ऐसा लगता है कि परिकर्म अवश्य ही षट्खण्डागम सूत्रो का व्याख्यान ग्रन्थ था।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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