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________________ २६६ · जेनसाहित्यका इतिहास सख्यात अर्थात् मध्यम अगस्यातागरणात ही ग्रहण होता है ऐगा परिकर्मका वचन है। गहरुव वागिज्जगाणे वागिज्जमाणे मगरोग्जाणि गट्टाणाणि गतूण सोहम्मोसाण विनराम सुई उप्पज्जदि। सा सुरु वागिदा गरेऽय विवयमसुई हवदि । सा सइ वागिदा भवणवागिय विश्वगाई हवदि। मा गइ बग्गिदा घणगुलो हवदि' ति परियम्मवयणादी णव्यदै घणपदरं गुलाण वगमू रस्म गहण ण हदि किंतु सूचि अगुलयागगृलस्सेय गहण होरि ति अण्णहा घणगुलविदिय वग्गमूल स्स मणुपत्तीदो' ।-पृ० १३४ 'माठया उत्तरोत्तर वर्ग करते हुए मसरन्यात वर्गस्यान जाकर गोधर्म और ऐगान सम्बन्धी विष्कम्म सूची उत्पन्न होती है। उसका एक बार वर्ग करनेपर नारकासम्बन्धी विष्कम्भ गूची होती है । उसका एक वार वर्ग करनेपर भवन वागी देवी मम्बन्धी विष्कम्भ सूची प्राप्त होती है। उसका एक बार वर्ग करनेपर पनागुल होता है' परिकर्मफे इस कथनसे जाना जाता है कि प्रकृतमे घनागुल और प्रतरागुलके वर्गमूला ग्रहण नही किया है किन्तु सूच्यगुलगे वर्गमूलका ही ग्रहण किया है।' ____ 'रज्जू गत्त गुणिदा जगसेटी, मा वग्गिदा जगपदरं, मेटीए गुणिदजगपदरं घणलागो होदि' त्ति परियम्म मुत्तण सव्वाऽरियसम्मदेण विरोहप्पसगादो च।पु० ४, पृ० १८४ । 'राजूको सातसे गुणा करने पर जगणी होती है, जगश्रेणीको जगश्रेणीसे गुणा करनेपर जगप्रतर होता है और जगप्रतरको जगश्रेणीसे गुणा करनेपर घनलोक होता है' इस सर्व आचार्योंमे सम्मत परिकर्म सूत्रसे विरोधका भी प्रसग प्राप्त होता है। 'सन्चोहि उक्कस्ससेत्तुप्पायणटुं परमोहि उपकस्सखेत तिस्मै चेव चरिममणवहिद गुणगारेण आवलियाए असखेजदि भाग पदुप्पणेण गुणिज्जदित्ति के वि भणति । तण्ण घडदे, परियम्मे वृत्त ओहिणिवद्ध खेत्ताणुप्पत्तीदो।'-पु० ९, पृ०४८ । सावधि ज्ञानके उकृष्ट क्षेत्रको उत्पन्न करानेके लिए परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको आवलीके असख्यातवें भागसे उत्पन्न करानेके लिए परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको आवलीके असख्यातवें भागसे उत्पन्न उसके ही अन्तिम अनवस्थित गुणकारसे गुण किया जाता है, ऐसा कोई आचार्य कहते है। किन्तु यह घटित नही होता, क्योकि ऐसा मानने पर परिकर्म में कहे हुए अवधिसे निवद्ध क्षेत्र नही बनते ।' 'जदि सुदणाणिस्स विसओ अणतसखा होदि तो जमुक्कस्स सखेज्जं विसओ ___ चोद्दसपुन्विस्से त्ति परियम्मे वृत्तं त कध घडदे ?-यु० ९, पृ० ५६ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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