SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवला - टीका २६५ टीकासे उन सब उद्धरणो को दे देना उचित समझते है जिनसे परिकमं प्रतिपादित विषयका आभास मिलता है । परिकर्मका सबसे अधिक उल्लेख जीवद्वाणके द्रव्यप्रमाणानुयोग अनुयोगद्वार की घवलाटीकामें मिलता है । इस अनुयोगमें जीवोकी सख्याका कथन है । 'जम्हि जम्हि अणताणंतयं भगिज्जदि तम्हि तम्हि अजहण्ण्णमणुक्कस्स अणताणतस्से वगहण" इदि परियम्म वयणादो जाणिज्जदि अजहष्णमणुक्कस्स अणताणतस्सेव गहण होदित्ति | पट्ख० पु० ३ पृ०१९] 1 'जहाँ जहाँ अनन्तानन्त देखा जाता है वहाँ वहाँ अजघन्यानुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम अनन्तानन्तका ही ग्रहण होता है', परिकर्मके इस वचनसे जाना जाता है कि प्रकृतमें अजघन्यानुत्कृष्ट अनन्तानन्तका ही ग्रहण है ।' 'जहण्ण अणताणतणग्गिज्जमाणे जहण्ण अणंताणतस्स हेट्टिमवग्गणट्ठाणेहितो उवरि अणतगुणवग्गट्टाणाणि गतूण सव्वजीवरासिवग्गसलागा उप्पज्जदि' त्ति परियम्मे वृत्त ' [ पु० ३, पृ० २४ ] 8 जघन्य अनन्तानन्तका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर जघन्यअनन्तानन्तके नीचेके वर्गस्थानोसे ऊपर अनन्तगुणे वर्गस्थान जाकर समस्त जीवराशिकी वर्गशालाका उत्पन्न होती है', ऐसा परिकर्ममें कहा है । अणताणतविषये अजहणमणुक्कस्स अणताणतेणेव गुणगारेणभागहारेणविहोदव्व' इति परियम्म वयणादो । (पु०३ पृ० २५ ) . अनन्वान्तके विषय में गुणकार और भागहार अजघन्यानुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम अनन्तानन्तरूप ही होना चाहिये, इस प्रकार परिकर्मका वचन है । ण च एद वक्खाण 'जत्ति याणि दीवसायरख्वाणि जम्बूदीव छेदणाणि च ख्वाहियाणि' त्ति परियम्म सुत्तेण सह विरुज्झदिति । - पु० ३, पृ० ३६ । और यह व्याख्यान 'जितने द्वीपो और सागरोकी सख्या है और जम्बूद्वीपके रूपाधिक जितने 'छेद है उतने रज्जुके अर्धच्छेद है, परिकर्म सूत्रके साथ भी विरोधको प्राप्त नही होता ।' 'ज त गणणास खेज्जय त परियम्मे वृत्त । -- ५०३, पृ० १२४ । वह जो गणनासख्यात है उसका कथन परिकर्ममें है । 'जम्हि जम्हि असख्खेज्जासखेज्जय भागीज्जदि तम्हि तम्हि अजहण्ण मणुवकस्स - असंखेज्जासज्जस्सेव गहण भवदि' इदि परियम्मवयणादो । -- पृ० १२७ 'जहाँ जहाँ असख्यात देखा जाता है वहाँ वहाँ अजघन्यानुत्कृष्ट असख्याता
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy