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________________ धवला-टीका • २४३ पर चूर्णिसूत्रका व्याख्यान करते हुए यह भी लिखा है कि चू कि यह सूत्र देशामर्षक है अत उच्चारणाके वलसे और एलाचार्यके प्रसादसे चारो गतियोमें शेष कर्मोंकी प्ररूपणा करते है। इससे स्पष्ट है कि वीरसेनने सिद्धान्तग्रन्थोका अध्ययन एलाचार्यसे किया था और उन्हीके आदेशसे टीका-ग्रन्थोकी रचना की थी। अत एलाचार्य सिद्धान्तग्रन्थोके अपने समयके अधिकारी विद्वान थे, यह बात उनके शिष्य वीरसेनके द्वारा रचित दोनो टीकाओके देखनेसे ही स्पष्ट हो जाती है । ____ कसायपाहुडका परिचय कराते हुए हम यह लिख आये है कि कसायपाहुड के अधिकारोको लेकर मतभेद था। गाथासख्या ५ की जयधवला-टीकामें 'के वि आइरिया' कहकर एक मतभेदकी चर्चा है। उन किन्ही आचार्योके मतका निराकरण करके स्वकृत व्याख्यानका समर्थन करते हुए वीरसेनस्वामीने लिखा है-'अत भट्टारक एलाचार्यके द्वारा उपदिष्ट पूर्वोक्त व्याख्यान ही यहा प्रधानरूपसे ग्रहण करना चाहिये । उपदिष्ट व्याख्यानसे आशय उस व्याख्यानसे है, जिसका उपदेश एलाचार्यने वीरसेनको दिया था। अत यह स्पष्ट है कि एलाचार्य सिद्धान्तग्रथोके अधिकारी व्याख्याता थे। चूकि वीरसेनस्वामीने धवलाकी समाप्ति शक स० ७३८ ( ८१६ ई० ) में की थी, अत यह निश्चित है कि एलाचार्य ईसाकी ८ वी शतीके उत्तरार्धमें विद्यमान थे। परन्तु उनकी गुरुपरम्पराके सम्वन्धमें कुछ ज्ञात नही होता। वीरसेन स्वामीकी बहुज्ञता जयधवलाको प्रशस्तिमें जो वीरसेन स्वामीको प्राचीन पुस्तकोके अध्ययनका अनुपम प्रेमी होनेके कारण चिरन्तन पुस्तकशिष्यकोका गुरु और उनकी प्रज्ञाको सर्वार्थगमिनी कहा है वह उचित ही है। अपनी धवला और जयधवला टीकामें उन्होने जो अनेको ग्रन्थोके नाम तथा उद्धरण दिये है उससे ही उक्त दोनो बातोकी पुष्टि हो जाती है। उद्धरणोका बहुभाग ऐसा है, खोजने पर भी जिसके मूल स्थानोका पता नही लग सका । उनमेंसे कुछ उद्धरण ऐसे भी है जो हरिभद्रसूरि के अनेकान्तवादप्रवेशमें, बौद्धग्रन्थ तत्त्वोपप्लवमें3 सिंहगणि क्षमाश्रमणकृत नयचक्रवृत्तिमें तथा भगवती आराधनाकी विजयोदया टीकामें भी उद्धृत है । धवलाजयधवलामें निर्दिष्ट अन्थो तथा जिन उद्धरणोके स्थलोका पता लग सका है उनके अनुसार वीरसेनस्वामीने नीचे लिखे ग्रन्थोका उपयोग अपनी टीकामोमें किया है ? १ 'तदो पुन्वुत्तमलाइरियभडारण उवइट्ठवक्खाणमेव पहाणभावेण पत्थ घेतव्व ॥ -क पा, मा १, पृ १६२ । २ क.पा मा. १, पृ. २५५ । ३ क. पा. भा. १ पृ. २५६ । ४. क पा. भा १ पृ २२७ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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