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________________ २४२ : जैनसाहित्यका इतिहास थे। जैसे भारती-भरत चक्रवर्तीकी-आज्ञा भरत क्षेत्रके पट्खण्डोमें कभी स्वलित नहीं हुई वैसे ही वीरसेनकी भारती पट्यण्डरूप आगममें कभी स्खलित नही हुई। उनकी सर्वार्थगामिनी नैसर्गिक प्रज्ञाको देखकर मनीपीजम सर्वज्ञके अस्तित्वमें सन्देह रहित हो गये। उन्हे पण्डितजन श्रुतकेवली और प्रज्ञाश्रमणोमें श्रेष्ठ कहते थे। प्रसिद्ध सिद्धान्तस्पी समुद्रके जलसे प्रक्षालित होनेके कारण उनकी बुद्धि निर्मल हो गई थी और इसलिये वह बुद्धि-प्रद्धिसे सम्पन्न प्रत्येकबुद्धीमे स्पर्धा करते थे। वह प्राचीन पुस्तकोके तो मानो गुरु थे। उन्होने प्राचीन पुस्तकोका अध्ययन करके अपनेसे पहलेके सभी पुस्तकशिष्यकोको अतिक्रमण किया था।' __केवली, श्रुतकेवली, प्रनाश्रमण, प्रत्येकबुद्ध ये पद जैन परम्परामें ज्ञानकी दृष्टिसे अति उच्च माने गये है । वीरसेनको उनके समकक्षा वतलाना उनके महनीय व्यक्तित्व और सर्वोच्च ज्ञानगरिमाको प्रकट करता है। ___इन्ही जिनसेनने अपने महापुराणके प्रारम्भमें उन्हें वादिमुख्य, लोकवित्, कवि और वाग्मी बतलाया है । जिनसेनके शिष्य गुणभद्रने उन्हें समस्त वादियोको वस्त करनेवाला कहा है तथा पुन्नाटसघीय जिनसेनने कवियोका चक्रवर्ती कहा है। इन सब विशेपणोसे तथा स्वयं वीरसेनकी टीकाओके अवगाहनसे वीरसेनकी विद्वत्ता और मर्वतोमुखी प्रतिभाका यथोचित आभास मिल जाता है । वीरसेनके गुरु • एलाचार्य धवलाको प्रशास्तिकी पहली गाथामें वीरसेनस्वामीने एलाचार्यका स्मरण करते हुए लिखा है-'जिसके आदेशसे मैंने यह सिद्धान्त लिखा वे एलाचार्य मुझ वीरसेन पर प्रसन्न हो। इसके सिवाय धवला और जयधवलामें वीरसेनने अपनेको एलाचार्यका वत्स ( वच्चा) भी लिखा है। जयधवलामें एक स्थान प्रसिद्धसिद्धसिद्धान्तवाधिवाह्नतशुद्धधी । सार्थ प्रत्येकजुद्धर्य स्पर्धते धीद्धयुद्धिमि ॥२॥ पुस्तकाना चिरन्तानां गुरुत्वमिह कुर्वता । येनातिशायिता• पूर्वे सर्वे पुस्तकशिष्यका ॥२४॥ यस्तपोदीप्तकिरणैर्भव्याम्भोजानि बोधयन् । व्यद्योतिष्ठ मुनिनेनः पञ्चस्तूपान्वयाम्बरे ॥२५॥ प्रशिष्यश्चन्द्रसेनस्य य शिप्योऽप्यार्य नन्दिनाम् । कुल गण च सन्तान स्वगुणैरुदजिज्वलत् ॥२६॥ -ज.ध.प्र. १. 'जस्साण्सेण मए सिद्धन्तमिद हि अहिलहुद। महु सो एलाइरियो पसियउ वरवीर सेणस्स ॥२॥ २. 'दोसु वि उवएसेसु को एत्थ समजसो, एत्थ ण बाहइ जिब्भमेलाइरियवच्छओ।' -पटख., पु. ९, पृ. १२६ । कसा. पा., भा. १, पृ. ८१ । ३. 'एदेण वयणेण सुत्तस्स देसामासियत्त जेण जाणाविद तेण चउण्ह गईण उच्चारणा बलेन एलाइरिय पसाएण य सेसकम्माण परूवणा कीरदे।'-क. पा., भा०४, पृ. १६९।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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