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________________ २४४ : जेनसाहित्यका इतिहास १ राताम्गगाहट २. गोनिप्रागत-धरगेनाचार्य विरचित । ३. गुणघराचार्य विरचित-फसायपाहुउ ४. भूतवली विरचित-जीवट्ठाण, सुहावन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, वेदना, वर्गणा और महावन्ध । ५. पुन्दगुन्दरचित-परिकर्म, प्रवननसार, समयसार, पञ्चास्तिकाय, अष्टपाट । ६. यतिवृपभरचित-चूणिमूत्र और तिलोयपण्णत्ति । ७. उच्चारणाचार्यविरचित-उच्चारणावृत्ति । ८. वट्टकेराचार्यरचित-मूलाचार । ९. शिवार्यरचित-भगवती आराधना । १०. व्याख्याप्रज्ञप्ति १. गृद्धपिच्छाचार्यरचित-तत्त्वार्थसूत्र २ पिंडिया (२) ३. समन्तभद्ररचित-आप्तमीमासा, बृहत्स्वयम्भू०, युक्त्यनुशासन, ४. सिद्धसेनरचित-सन्मतिसूम ५ पूज्यपादरचित-सारसग्रह । ६. प्राकृत-पचसग्रह ७ अकलकदेवरचित-तत्त्वार्थभाष्य, सिद्धिविनिश्चय, लघीयस्त्रय १७ प्रभाचन्द्ररचित-कोई ग्रन्थ । १८ धनजयकविकृत नाममाला कोश । १९ वाप्पभट्टरचित-उच्चारणा । २०. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, अगपण्णत्ति आदि उक्त ग्रन्थोमेसे पिंडिया तथा पूज्यपादकृत सारसंग्रहका कोई पता नही चल सका है । कुछ उद्धृत गाथाए नीचे लिखे श्वेताम्बरीय आगमिक साहित्यमें पाई गई है। अत सभवतया इन ग्रन्थोका भी उपयोग वीरसेन स्वामीने अपनी टीकामओमें किया था। आधवश्यकनियुक्ति, आचारागनियुक्ति, अनुयोगद्वारसूत्र, दशवैकालिक, स्थानागसूत्र, नन्दिसूत्र, और ओपनियुक्ति । एक छेदसूत्रका भी उल्लेख है । लिखा है-द्रव्यस्त्री और नपुसक वस्त्र त्याग नही कर सकते, छेदसूत्रसे विरोध आता है । __ण च दन्वत्थीण णिग्गथत्तमत्यि, चेलादिपरिच्चारण विणा तासि भावणिग्गथत्ताभावादो। ण च दव्वथिणव॑सयवेदाण चेलादिचागो अस्थि, छेदसुत्तेण सह विरोहादो'–पटख, पु. ११, ११४-११५।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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